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सिद्धदेव स्वरूप : ९३
सिद्धगतिस्थान की पहचान
___ सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर पैंतालीस लाख योजन की लंबीचौड़ी गोलाकार छत्राकार सिद्धशिला है। वह मध्य में आठ योजन मोटी और चारों ओर क्रमशः घटती-घटती किनारे पर मक्खी के पंख से अधिक पतली हो जाती है। वह पथ्वी अर्जुन (श्वेतस्वर्ण) मयी है, स्वभाव से निर्मल है और उत्तान (उलटे) छाते के आकार की है अथवा तैल से परिपूर्ण दीपक के आकार की है। वह शंख, अंकरत्न और कून्दपुष्प-सी श्वेत, निर्मल और शुभ है। इसकी परिधि लम्बाई-चौडाई से तिगुनी अर्थात-१४२३०२४६ योजन की है। इस सीता नाम की ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त है।
उस सिद्धशिला के बारह नाम हैं-(१) ईषत्, (२) ईषत्प्राग्भारा, (३) तनु, (४) तनुतर, (५) सिद्धि, (६) सिद्धालय, (७) मुंक्ति, (८) मुक्तालय, (६) लोकाग्र, (१०) लोकाग्रस्तूपिका, (११) लोकाग्र-बुध्यमान और (१२) सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहा ।
' इस सिद्धशिला के एक योजन ऊपर, अग्रभाग में ४५ लाख योजन लम्बे-चौड़े और ३३३ धनुष, ३२ अंगुल ऊँचे क्षेत्र में अनन्तसिद्ध भगवान् विराजमान हैं। यहीं भव प्रपंच से मुक्त, महाभाग, परमगति-सिद्धि को प्राप्त सिद्ध अग्रभाग में स्थित हैं।
उस एक योजन के ऊपर का जो कोस है, उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना होती है ।
निष्कर्ष यह है कि ज्ञान-दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुँचे हए, परमगति-सिद्धि को प्राप्त वे सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं।' जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ अनन्त सिद्ध हैं
प्रश्न होता है-एक ही स्थान में अनेक सिद्ध कैसे रह सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि ज से एक ही पुरुष की बुद्धि में हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला, गुजराती, मराठी आदि भिन्न-भिन्न भाषाएँ समभाव से रहती हैं, उनका उच्चारण भिन्न-भिन्न प्रकार का होते हुए भी उनमें परस्पर संघर्ष नहीं होता, वे एकरूप मिलकर रहती हैं। इसी प्रकार जहाँ एक सिद्ध विराजमान है, उसी स्थान में अनन्तसिद्ध विराजमान हैं।
१ उत्तराध्ययन अ० ३६, गा० ५७ से ६७ तक, २ 'जत्थ एगो सिद्धो, तत्थ अणंतख्य भवविप्पमुक्को।'