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१२ : जैन तत्त्वकलिका
सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग में ही जाकर क्यों स्थित हो जाते हैं ? इसके दो कारण हैं-(१) आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन (गति) करने का होने से और (२) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकाकाश में ही है, आगे नहीं है, इस कारण।
जैसे पाषाण आदि पुद्गलों का स्वभाव नीचे की ओर गति करने का है, वायु का स्वभाव तिरछी दिशा में गति करने का है, इसी प्रकार कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगति करने का है। आत्मा जब तक कर्मों से लिप्त रहता है, तब तक उसमें एक प्रकार की गुरुता रहती है। इस गुरुता के कारण आत्मा स्वभावतः ऊर्ध्वगतिशील होने पर भी ऊर्ध्वगति नहीं कर पाता।
जैसे- तूम्बा स्वभाव से ही जल के ऊपर तैरता है, किन्तु मिट्टी का लेप कर देने पर भारी हो जाता है, इस कारण वह जल के ऊपर नहीं आ सकता; किन्तु ज्यों ही मिट्टी का लेप हटता है, त्यों ही तुम्बा ऊपर आ जाता है। इसी प्रकार आत्मा ज्यों ही कमलेप से मुक्त हो जाता है, त्यों ही वह अग्निशिखा की भाँति ऊर्ध्वगमन करता है। जैसे-एरण्ड का फल फटते ही उसके भीतर का बीज ऊपर की ओर उछलता है, वैसे ही जीव (आत्मा) शरीर और कर्म का बन्धन हटते ही ऊध्वंगमन करके एक समय मात्र काल में ही लोक के अग्रभाग (अन्तिम छोर) तक जा पहुँचता है। सिद्ध जीव की वह ऊर्ध्वगति विग्रहरहित होती है, इसलिए लोकान तक पहुंचने में उसे केवल एक समय लगता है।'
सिद्ध जीव लोक के अग्रभाग में ही ठहर जाता है आगे अलोक में नहीं जाता, इसका कारण यह है कि आगे (अलोक में) धर्मास्तिकाय नहीं है। धर्मास्तिकाय जीव की गति में सहायक होता है। अतः जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जीव की गति होती है। धर्मास्तिकाय के अभाव में आगे अलोकाकाश में गति नहीं होती। इसी कारण कहा गया है कि सिद्ध परमात्मा लोक के अग्रभाग में स्थित हैं और अलोक से लग कर रुक गए हैं। ___कई लोग यह कहते हैं कि मुक्तात्मा अनन्तकाल तक निरन्तर अविरत गति से अनन्त आकाश में ऊपर ही ऊपर गमन करता रहता है, कभी किसी . काल में ठहरता नहीं; किन्तु यह कथन यथार्थ और युक्तिसंगत नहीं है।
तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । पूर्वप्रयोगादसंगत्त्वाद् बन्धछेदात्तथागति-परिणामाच्च तद्गतिः ।'
-तत्त्वार्थ० अ० १०, ५-६