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सिद्धदेव स्वरूप : ६६
ज्ञानमय है।' उसके लिए कोई भी उपमा नहीं दी जा सकती। वह अरूपीअलक्ष्य है। उसके लिए किसी पद का प्रयोग नहीं किया जा सकता। वह शब्द-रूप-गन्ध-रस स्पर्शरूप नहीं है। इस प्रकार समस्त पौद्गलिक गुणों और पर्यायों से अतीत शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय और सत्-चिदानन्दमय (शुद्धात्म) सिद्धस्वरूप है।' सिद्ध कैसे कहाँ और किस रूप में होते हैं ?
मध्यलोक में, ढाई द्वीप में, पन्द्रहकर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ही आठों कर्मों को समूल नष्ट करके सिद्ध होते हैं। औदारिक, तेजस और कार्मण आदि सभी प्रकार के शरीर का सर्वथा त्याग करके अशरीर आत्मा सिद्ध होते हैं।
उत्तराध्ययन और औपपातिकसूत्र में सिद्ध भगवान् के विषय में प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गये हैं
प्रश्न-सिद्ध भगवान् कहाँ जाकर रुके हैं ? सिद्ध परमात्मा कहाँ जा कर स्थित हो रहे हैं ? सिद्ध भगवान् कहाँ शरीर त्याग कर–अशरीरी हो । कर-किस जगह जाकर सिद्ध हुए हैं ?
• उत्तर-सिद्ध भगवान् लोक से आगे-अलोक से लग कर रुके हैं; लोक के अग्रभाग में वे प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं। सिद्धपरमात्मा यहाँ मनुष्यलोक में शरीर का त्याग करके वहाँ-लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध हुए हैं।
१ सव्वे सरा नियटॅति, तक्का तत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने ।
से न दोहे, न हस्से, ण वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमंडले । न किण्डे, न नीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुक्किल्ले, न सुरभिगंधे न दुरिगंधे । न तित्त', न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे । न कक्कडे, न मउए, न गुरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न गिद्धे, न लुक्खे । न काऊ, न रुद्दे, न संगे। न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा । परिणे सण्णे । उवमा न विज्जति, अरूवी सत्ता। अपयस्स पयं णत्थि, से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे इच्चेतावंती।
-आचारांग सूत्र श्रुत० १, अ० ५, उद्देशक ६ २ (प्र०) कहिं पडिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ?
कहिं बोंदि चइत्ताणं, कत्थ गतूण सिज्झइ ? (उ०) 'अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया । इहं बोंदि चइत्ताणं, तत्थगंतूण सिज्झइ ॥'
-औपपातिकसूत्र, उत्तराध्ययन० अ० ३६ गा० ५५-५६