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& : जैन तत्त्वकलिका सिद्धिगति का वर्णन किया गया है कि वह शीत-उष्ण, क्षधा-पिपासा, दंशमशक, सर्प आदि से होने वाली सर्वबाधाओं से तथा उपद्रवों से रहित होने के कारण वह 'शिव' है। स्वाभाविक अथवा प्रयोगजन्य हलन-चलन या गमनागमन का कोई भी कारण न होने से वह 'अचल' है । रोग के कारणभूत शरीर और मन का सर्वथा अभाव होने से वह 'अरुज' (रोगरहित) है। अनन्त पदार्थों सम्बन्धी ज्ञानमय होने से 'अनन्त' है। सादि होने पर भी अन्तरहित होने के कारण वह 'अक्षय' है, अथवा सुख से परिपूर्ण होने के कारण पूर्णिमा के चन्द्र के समान 'अक्षत' है। दूसरों के लिए (आने वाले मुक्तात्माओं के लिए) अथवा अपने लिए किसी प्रकार बाधाकारी न होने से 'अव्याबाध' है । एक बार सिद्धि-मुक्ति प्राप्त कर लेने के बाद मुक्तात्मा फिर संसार में नहीं आता, वह सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, इस कारण अपुनरावृत्ति है । ऐसा सर्वथा निरामय और निरूपम परमानन्दमय सिद्धधाम लोक के अग्रभाग में है, जो सिद्धिगति स्थान कहलाता है, उसी स्थान को सम्प्राप्त आत्मा सिद्ध कहलाते हैं।'
सवथा शुद्ध आत्माः सिद्ध परमात्मा ___ आचारांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कन्ध में परमविशुद्ध आत्मा का जो स्वरूप बताया है, वही सिद्ध परमात्मा का स्वरूप है । वह इस प्रकार है
___ शुद्ध आत्मा (सिद्ध) का वर्णन करने में कोई भी शब्द (स्वर) समर्थ. नहीं है। कोई भी तर्क-वितर्क शुद्ध-आत्मा के विषय में नहीं चलता। मति या कल्पना का भी वहाँ (शुद्ध-आत्मा के विषय में) प्रवेश (अवगाहन) नहीं है। केवल सम्पूर्ण ज्ञानमय शुद्ध आत्मा ही वहाँ है ।
शुद्ध आत्मा न तो दीर्घ (लम्बा) है, न ही ह्रस्व (छोटा) है। वह वत्त (गोलाकार) नहीं; न त्रिकोण है, न चौकोर है, न ही परिमण्डलाकार (चूड़ी के आकार का) है । न ही काला है, न नीला है, न लाल है, न पीला है
और न ही शुक्ल (श्वेत) है। न ही सुगन्धित है, न दुर्गन्धित है। वह तिक्त नहीं, कटु नहीं, कसैला नहीं, खट्टा नहीं, न ही मीठा है। न वह कठोर है, न कोमल, न गुरु (भारी) है, और न लघु (हलका) है, न शीत है, न उष्ण है, न ही स्निग्ध है, और न ही रूक्ष है। __वह स्त्री नहीं, पुरुष नहीं और न नपुसक है। केवल परिज्ञानरूप है।
१ 'सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं।'
-शक्रस्तव-नमोत्थुणं का पाठ