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सिद्धदेव स्वरूप : ६
इस प्रकार ज्ञान की समानता और चार घाती कर्मों के अभाव की तुल्यता होने से अर्हदेव और सिद्ध परमात्मा ये दोनों पद 'देव कोटि' में माने गये हैं, क्योंकि देव (देवाधिदेव) की परिभाषा जैनागमों में यही की गई है'जो सब प्रकार के दोषों (अठारह दोषों) से सर्वथा रहित हो गया हो' । अरिहन्तों की तरह सिद्ध भी समस्त दोषों से रहित हो चुके हैं तथा जो देव होते हैं, वे दूसरों के कल्याण के लिए नाना प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं, निःस्वार्थ-निष्कामभाव से सत्य एवं हितकर उपदेश देते हैं। दूसरों के सुख के लिए अपने जीवन का भी व्युत्सर्ग कर देते हैं; परोपकारपथ से किञ्चित् भी विचलित नहीं होते। अरिहन्त और सिद्ध दोनों इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। अतएव देवपद में अरिहन्तदेव और सिद्ध परमात्मा दोनों को लिया गया है।
इन दोनों में मौलिक अन्तर यह है कि अरिहन्त देव शरीरधारी होते हैं, जबकि सिद्ध परमात्मा अशरीरी होते हैं। इसके अतिरिक्त अरिहन्तदेव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय; इन चार कर्मों से मुक्त होकर केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) और केवलदर्शी (सर्वदर्शी) होते हैं, जबकि सिद्ध भगवान् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म इन आठों कर्मों से रहित होते हैं । वे सदा निजानंद में मग्न रहते हैं। सिद्ध परमात्मा अजर, अमर, निरंजन निर्विकार, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, पारंगत, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और ज्ञानस्वरूप होते हैं।
उन सिद्ध भगवन्तों को दीक्षा के समय तीर्थंकरदेव भी नमस्कार करते हैं।' अतएव श्री सिद्ध भगवान् भी देवाधिदेव हैं। मुनिजन तीर्थंकर जब मोहनीयकर्म का उपशम या क्षय करने के लिए प्रवृत्त होते हैं, या क्षय कर लेते हैं, तब अन्तिम श्रेणी (चौदहवें गुणस्थान) पर पहुँचने के लिए उन्हीं (सिद्धों) को ही ध्येय बनाकर आत्मा को परम शुद्ध बनाते हैं । स्वरूप में ही सदा-सर्वदा वे निमग्न रहते हैं। वे निजात्म स्वरूपी हैं; इसी कारण उन्हें अभाषक (बोलने वाले) सिद्ध कहा गया है।
सिद्ध-परमात्मा कृतकृत्य और समस्त कर्म कलंक से रहित होकर सच्चिदानन्दपद प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए सिद्ध-आत्मा परमसुखों का पुञ्ज है।
सिद्ध परमात्मा का स्वरूप शक्रस्तव पाठ (नमोत्थुणं) में सिद्ध भगवान् का स्वरूप बताते हुए
१ सिद्धाणंनमोकिच्चा'
-उत्तरा० अ० २० गा० १