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________________ सिद्धदेव स्वरूप अरिहन्त और सिद्ध में अन्तर अरिहन्त के बाद सिद्ध परमात्मा भी देवपद में समाविष्ट हैं; क्योंकि केवलज्ञान, केवलदर्शन और उपयोग द्वारा अरिहन्त और सिद्ध परमात्मा दोनों लोकालोक में व्यापक हैं । अतः सभी पदार्थ इन दोनों के ज्ञान में व्याप्त होते हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तबल, इन बातों में दोनों में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं है। दोनों अनन्त गुणों के धारक हैं । यह बात भी भलीभाँति निर्विवाद सिद्ध है कि जो धर्मोपदेशं अरिहन्त (तीर्थंकर) देवों ने दिया है, वही धर्मोपदेश सिद्ध परमात्मा का भी है ( रहा है); क्योंकि केवलज्ञान की अपेक्षा से श्री अरिहन्त (तीर्थंकर) देव और सिद्ध परमात्मा में अभेदता सिद्ध होती है । एक बात यह भी है कि अरिहन्त देव को अवश्यमेव मोक्ष-गमन करना है । जब वह (तीर्थंकर) मोक्षगमन करते हैं, तब उनकी अरिहन्त या तीर्थंकर संज्ञा समाप्त होकर 'सिद्ध संज्ञा' हो जाती है । अतः 'साम्प्रतिकाभावेभूतपूर्व गति:' इस न्याय से वह पूर्वोक्त उपदेश एक तरह से सिद्ध परमात्मा का ही कहा जाता है 'सिद्ध एवं वदंति'" ("सिद्ध इस प्रकार कहते हैं') इस प्रकार के शास्त्रोक्त वचनों से यह निश्चय हो जाता है कि अरिहन्त देवों को ही समान गुण होने से अपेक्षा दृष्टि से सिद्ध माना गया है । शास्त्र में सिद्धों के दो प्रकार बतलाए गए हैं - भाषकसिद्ध और अभाषक सिद्ध । अरिहन्त भगवान् भाषक सिद्ध ( बोलने वाले सिद्ध भगवान्) कहलाते हैं । वे धर्मोपदेश देते हैं, इसलिए 'भाषक' हैं और निकट भविष्य में ही उन्हें मुक्ति प्राप्त होती है तथा वे जीवन्मुक्त और कृतकृत्य होते हैं, इस कारण सिद्ध कहलाते हैं । भविष्यत् नैगमनय को दृष्टि से भी अर्हदेव को सिद्ध कह सकते हैं, क्योंकि आयुष्यकर्म के क्षय हो जाने पर अर्हदेव अवश्य ही मोक्षगमन करते हैं । १ भगवतीसूत्र २ प्रज्ञापनासूत्र प्रथम पद, सिद्ध प्रज्ञापना
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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