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८६ : जैन तत्त्वकलिका
गृहस्थ और त्यागी दोनों प्रचुर संख्या में आए। उनके संघ में त्यागी श्रमणों की संख्या १४ हजार और साध्वियों-भिक्षणियों की संख्या-३६००० थी। लाखों की संख्या में गृहस्थ श्रावक-श्राविका वर्ग था।
भगवान के श्रमण शिष्यों में इन्द्रभूति आदि ११ गणधर ब्राह्मण थे, मेघकुमार जैसे अनेक क्षत्रिय पुत्र थे; शालिभद्र, धन्ना जैसे अनेक वैश्य वर्ण के थे; तथा अजुन; मैतार्य और हरिकेशी जैसे अनेक शूद्र-अतिशूद्र वर्ण के शिष्य थे। ये सभी भगवान महावीर के संघ में दीक्षित होकर सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सके थे।
चन्दनबाला आदि कई क्षत्रिय कन्याएँ, देवानन्दा आदि ब्राह्मणपुत्रियाँ तथा अन्य सभी वर्गों की श्रमणी शिष्याएँ भी संघ में दीक्षित होकर स्वपर-कल्याण कर चुकी थीं।
गृहस्थों में वैशालीपति चेटक, श्रोणिक (बिम्बसार) और अजातशत्रु कोणिक इत्यादि अनेक क्षत्रिय राजा थे, आनन्द, कामदेव आदि दस मुख्य श्रमणोपासकों में वणिक और कुम्भकार जाति के गृहस्थ थे। स्कन्दक, अम्बड़ आदि अनेक परिव्राजक तथा सोमिल आदि अनेक विद्वान् ब्राह्मण भगवान् के अनुगामी बने थे । गृहस्थ उपासिकाओं में रेवती, सुलसा और जयन्ती आदि प्रख्यात, श्रद्धालु एवं विचारवती श्राविकाएँ थीं।
श्रमण भगवान् महावीर ने चातुर्याम धर्म के स्थान पर सप्रतिक्रमण, पंचमहाव्रत रूप धर्म को स्थापित किया। इनके पालन करने के लिए व्यवस्थित ढंग से नियमोपनियम और आचार-विचार समाचारी की रचना की। इसी प्रकार श्रावकों के लिए ५ अणुव्रत, ३ गुणवत और ४ शिक्षाव्रत बताए, जिनमें संयम और तप के छोटे-बड़े अनेक नियम समाविष्ट हो गए थे।
आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त भगवान् महावीर के उपदेश के प्रमुख तत्त्व थे। भगवान् महावीर का भ्रमण (पादविहार) विदेह, मगध, काशी, कौशल, कुरुजांगल आदि अनेक देशों में हुआ था। श्रावस्ती, कौशाम्बी, ताम्रलिप्ती, चम्पा और राजगृही; ये नगरियाँ उनके धर्मप्रचार की मुख्य केन्द्र रहीं।
भगवान के परिस्थिति परिवर्तनसूचक उपदेशों से उस युग की जनता के धार्मिक और सामाजिक जीवन में जबर्दस्त क्रान्ति आ गई थी।
निर्वाण
आज से लगभग २५०० वर्ष पहले राजगृह के निकट पावापुरी नामक