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अरिहन्तदेव स्वरूप : ६५
(२) मुक्ति का द्वार सबके लिए खुला केवल स्वतीथिक मुनिवेषी के लिए ही नहीं, सभी धर्म-सम्प्रदाय, देश, वेष के स्त्री-पुरुषों के लिए यहाँ तक कि गृहस्थों तक के लिए खुला है, चाहिए रत्नत्रय की साधना।।
(३) जातिभेद की महत्त्वहीनता- उन्होंने जातिपांति का जरा भी भेदभाव रखे बिना सभी वर्गों और जातियों के लिए, यहाँ तक कि शूद्रों और और अतिशूद्रों तक के लिए भी भिक्ष पद और गुरुपद तथा श्रावकपद का मार्ग खुला कर दिया । श्रेष्ठता का निश्चय जन्म से नहीं, परन्तु गुणों से, गुणों में भी पवित्र जीवन से होता है। उन्होंने सर्वत्र ऐसी उद्घोषणा की।
(४) स्त्रियों को भी पूर्ण विकास का अधिकार-धर्माराधना और -मोक्ष की साधना में जितना अधिकार पुरुषों को है, उतना ही स्त्रियों को है। स्त्रियों को भी अपने विकास की पूर्ण स्वतन्त्रता है। उनमें भी ज्ञान और आचार-श्र धर्म और चारित्रधर्म पालन करने की सम्पूर्ण योग्यता है, वे भी मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं। इस प्रकार भगवान् महावीर ने स्त्रियों को भी पूर्ण विकास की स्वतन्त्रता दी।।
. (५) भगवान् महावीर ने अपने तत्त्वज्ञान और आचार के उपदेश उस समय की प्रचलित लोकभाषा में देकर विद्वद्गम्य संस्कृत भाषा का मोह कम कर दिया । योग्य अधिकारी को ज्ञान प्राप्ति करने में भाषागत अन्तराय दूर कर दिया।
(६) त्याग और तप के नाम से प्रचलित रूढ़ शिथिलाचारों, आडम्बरों, इहलौकिक-पारलौकिक सुखवांछा, यशःप्राप्ति आदि प्रतिबन्धन के स्थान में भगवान् महावीर ने नामना-कामनारहित निष्कांक्ष तप, त्याग और आचार को प्रतिष्ठित किया।
(७) धर्म के नाम से या स्वर्गादिसुखों की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाते पशुबलिदान या अन्य हिंसाकांडों का भगवान् ने सर्वत्र निषध किया और आध्यात्मिक यज्ञ एवं क्र रकर्मों, कषायों तथा रागद्वषादि विकारों की बलि देने और सभी प्रवृत्तियों में अहिंसा-सत्यादि धर्म को मुख्यता दी।।
(८) ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिए किये जाने वाले यज्ञयाग आदि कर्मकांडों के स्थान में संयम और तप के स्वावलम्बी और पुरुषार्थ प्रधान मार्ग की स्थापना की।
इन उदार और सार्वजनिक उपदेशों के सिवाय, अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों को विविध पहलुओं से समझाने के कारण श्रमण भगवान् महावीर के संघ में सभी वर्गों और जातियों के तथा अन्य मतों के