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८४ : जैन तत्त्वकलिका
धारा को उन्होंने अपना जीवनसूत्र बना लिया - दूसरों को जिलाते हुए जीओ ।
यही कारण है कि अपनी सुखसुविधा का ध्यान न रखकर श्री महावीर दूसरे जीवों की रक्षा का तथा उन्हें जरा भी पीड़ा न पहुँचाने का ध्यान रखते थे । इसके लिए वे जन समूह से दूर एकान्त निर्जन स्थान में कायोत्सर्ग, ध्यान, मौन आदि साधना करते थे; क्योंकि संयम का सम्बन्ध मुख्य रूप से मन और वचन के साथ होता है, अतः उसमें ध्यान मौन का समावेश हो जाता है ।
तप और संयम को सिद्ध करने के लिए भगवान् महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक वीरता, धीरता, अप्रमत्तता और तत्परतापूर्वक तपश्चरण किया, जिसका नमूना इतिहास में और कोई नहीं मिलता । महावीर का तप यद्यपि उग्र तप था, परन्तु देहदमन नहीं था । संयम और तप की उत्कटता के कारण महावीर ज्यों-ज्यों अहिंसा तत्त्व के अधिकाधिक निकट पहुँचते गए त्यों-त्यों उनकी गंभीर शान्ति बढ़ने लगी । उसका प्रभाव आस-पास के प्राणियों पर अपने आप पड़ने लगा । इसी कारण मगध और विदेह के अनेक तापसों, परिव्राजकों, पार्श्वपत्यिक स्थविरों, श्रमणों आदि का जीवन परिवर्तन हुआ। वे महावीर के धर्म में प्रव्रजित हो गए ।
उपदेशक जीवन
श्रमण भगवान् महावीर का ४३ वें वर्ष से लेकर ७२ वर्ष तक का दीर्घ जीवन तीर्थंकर होने के नाते सार्वजनिक सेवा, धर्मोपदेश, धर्मप्रेरणा और धर्म-सिद्धान्त प्रचार आदि में व्यतीत हुआ । उसमें मुख्यतया निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य हुए
(१) देव पूजा की अपेक्षा मानव प्रतिष्ठा - मनुष्य अनेक देवी- देवों की पूजा, मनौती आदि करके उनसे अपने सुख और कल्याण की आशा रखता था, भगवान् महावीर ने कर्मवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत करके मनुष्य की प्रतिष्ठा बढ़ाई |
उन्होंने कहा – हे मानव ! तुममें अनन्त शक्ति है । उस शक्ति को प्रकट करने के लिए पुरुषार्थ करो । जब रत्नत्रयरूपधर्म में तुम्हारी अनन्य निष्ठा होगी, तब तुम्हारे अशुभ कर्म स्वतः नष्ट हो जाएँगे और तुम्हारे समक्ष अक्षय सुख और शान्ति का भण्डार खुला मिलेगा । अतः देव पूजा के बदले मनुष्य की अटल प्रतिष्ठा भगवान् ने बताई |