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८२ : जैन तत्त्वकलिका
द्वेष
राजनैतिक एकता भी टूट गई थी। गणतंत्र या राजतंत्र की प्रणाली से चलने वाले राज्यों में भी छिन्नभिन्नता आ चुकी थी । परस्पर फूट, और कलह का ही प्राधान्य था ।
ऐसी परिस्थिति कितने ही विचारशील और दयालु लोगों के लिए असह्य थी । परन्तु इस परिस्थिति को बदल सकें इसके लिए असाधारण प्रयत्न कर सकने वाले किसी प्रभावशाली नेता की अपेक्षा थी । ऐसे समय बुद्ध और महावीर का जन्म हुआ ।
जन्म, जाति और वंश
तीर्थंकर श्री महावीर की जाति क्षत्रिय थी । उनका वंश नाय (ज्ञात) था । उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला क्षत्रियाणी था । माता त्रिशला के अन्य नाम विदेहदिन्ना और प्रियकारिणी भी थे । महावीर के चाचा का नाम सुपार्श्व था । महावीर के नंदीवर्द्धन नामक बड़े भाई थे, जिनका विवाह वैशाली नगरी के अधिपति महाराजा चेटक की पुत्री के साथ हुआ था। उनकी बड़ी बहन सुनन्दा का विवाह क्षत्रियकुण्ड में हुआ था । उसके जमाली नाम का एक पुत्र था, जिसका विवाह महावीर की पुत्री प्रियदर्शना के साथ हुआ था । श्वेताम्बर शास्त्रों के मतानुसार श्री महावीर विवाहित थे । उनका विवाह यशोदादेवी के साथ हुआ था ।
भगवान महावीर के विशेषतः तीन नामों का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है - वर्धमान, विदेहदिन्न और श्रमण भगवान् । वर्धमान नाम सर्वप्रथम था, तत्पश्चात् साधकजीवन में वे महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए और उपदेशक जीवन में श्रमण भगवान् कहलाए ।
गृहि-जीवन
वर्धमान का बाल्यकाल स्वाभाविक रूप से प्रायः बालक्रीडाओं में व्यतीत होता है । फिर भी उनमें चिन्तनशीलता रही । यौवनवय में प्रवेश करते-करते उनके जीवन में त्याग, तप एवं वैराग्य के संस्कारों के कारण गम्भीरता आ गई थी । उस समय की सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों पर महावीर ने चिन्तन न किया हो, ऐसी बात नहीं थी, फिर भी उन्हें सर्वप्रथम अपने आपको त्याग, तप और संयम से आत्मबली बनाना था । फिर अपने कुलधर्म (पार्श्वनाथ भगवान् के चातुर्याम धर्म) की ओर उनका सुसंस्कारी मन आकर्षित हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है । एक ओर जन्मसिद्ध वैराग्य के बीज और दूसरी ओर कुलधर्म के त्याग तपोमय आदर्शों का प्रभाव; इन दोनों परिबलों के कारण वयस्क होते ही वर्धमान ने अपने जीवन का उच्च ध्येय निश्चित कर लिया हो, ऐसा सम्भव है ।