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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ८१ 'पुरुषादानीय' (पुरुषों में आदेय) आदि सम्मानपूर्ण विशेषण लगाकर उनके प्रति हार्दिक आदरभाव व्यक्त करते हैं।' भगवान् पार्श्वनाथ लगभग ७० वर्ष तक भ्रमण करके धर्मोपदेश करने के बाद १०० वर्ष की आयु में सम्मेतशिखर से निर्वाण को प्राप्त हुए। इन्हीं के नाम से आज सम्मेतशिखर 'पारसनाथ हिल' कहलाता है। इसके आस-पास विहार तथा बंगाल में बसी हुई सराक जाति भगवान् पार्श्वनाथ को अपना इष्टदेव मानती है। आज भी जैनेतर जनता में भगवान् पार्श्वनाथ की विशेष ख्याति है। (४) चौबीसवें तीर्थकर दीर्घतपस्वी श्रमण भगवान महावीर- . आज से लगभग २६००-२७०० वर्ष पहले, जबकि महावीर का जन्म नहीं हआ था, तब भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक परिस्थिति एक विशिष्ट आदर्श की अपेक्षा रखती थी। देश में अनेक मठ थे, जिनमें अनेक साधुबाबा रहते और तामसिक तपस्याएँ करते थे, ऐसे अनेक आश्रम थे, जिनमें साधारण सांसारिक मनुष्यों जैसी ममता धारण करके वर्तमान महंतों जैसे बड़े-बड़े धर्मगुरु रहते थे। कई संस्थाएँ ऐसी भी थीं, जहाँ विद्या की अपेक्षा कर्मकांडों-विशेषतः यज्ञयागों का महत्त्व बताया जाता था और उनका प्रचार किया जाता था। उन कर्मकांडों में पशुबलि को धर्म बताया जाता था। समाज में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था, जो पूर्वजों के द्वारा पुरुषार्थ से प्राप्त गुरुपद को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता था। इस वर्ग में विद्या, पवित्रता और उच्चता-नीचता की ऐसी कृत्रिम अस्मिता घर कर गई थी, जिसके कारण वह दूसरे (अन्य सभी वर्ग के) लोगों को अपवित्र, अज्ञानी और अपने से नीच और घृणा का पात्र मानकर अपनी परछाईं के स्पर्श तक को पाप मानता था। वह ग्रन्थों के केवल अर्थरहित पठन एवं उच्चारण में ही पाण्डित्य मानकर दूसरों पर अपने गुरुपद की धाक जमाता था । शास्त्र और उनकी व्याख्या अति क्लिष्ट एवं विद्वानों के ही समझने योग्य भाषा में लिखी होने से सामान्य लोग उन ग्रन्थों से कोई लाभ नहीं उठा सकते थे। स्त्रियों, शूद्रों और अतिशूद्रों को तो किसी भी विषय में प्रगति करने का अवसर ही नहीं मिलता था। उनकी आध्यात्मिक उन्नति की इच्छाएँ मन ही मन में घुटती रहती थीं। परापूर्व से चली आती हुई जैन गुरुओं की परम्परा में भी अत्यन्त शिथिलता आ गई थी। १ ""से नूणं भंते ! गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बूइए.
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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