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८० : जैन तत्वकलिका
भगवान् महावीर के माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी व श्रमणोउपासक थे' । भगवान् महावीर ने तीर्थंकर होने के नाते भले ही नये सिरे से तीर्थ की स्थापना की हो, चातुर्याम के बदले पंच महाव्रत का निरूपण किया हो तथा द्वादशांगी की प्ररूपणा की हो, किन्तु भगवान् महावीर को मुख्यतया तीन बातें भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा से मिली थीं - (१) संघरचना, (२) आचार और (३) श्रुत ।
आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, स्थानांग और उत्तराध्ययन में वर्णित पाठों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर के संघ में सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत रूप धर्म से आकृष्ट होकर कई पार्श्वपत्यिक स्थविर, मुनि प्रविष्ट हो जाते हैं ।
अतः भगवान् पार्श्वनाथ का संघ भी समृद्ध तथा व्यवस्थित था तथा उनके शिष्यों और श्रमणों ने सामायिक, संयम, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, विवेक आदि चारित्र ( आचार) सम्बन्धी प्रश्न भगवान् महावीर के स्थविरों से किये हैं । वे प्रश्न और पारिभाषिक शब्द भगवान् महावीर के आचार सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों से मिलते-जुलते हैं ।
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इसी तरह कई पार्श्वपत्यिक स्थविरों द्वारा लोक में रात्रि दिवस सम्बन्धी, जीवों की उत्पत्ति - च्यवन सम्बन्धी प्रश्न पूछे गये हैं, वे भी यह सूचित करते हैं कि भगवान् महावीर के तत्त्वज्ञान या श्रुत से भगवान् पार्श्वनाथ का तत्त्वज्ञान या श्रुत कितना मिलता था ।
यही कारण हैं कि स्वयं भगवान् महावीर संयम के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित या तत्त्वज्ञान के विषय पूछे गये प्रश्नों के उत्तर देते समय भगवान् पार्श्वनाथ के मन्तव्यों का आधार भी लेते हैं और पार्श्वनाथ के
१ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जसमणोवासगा यावि होत्था - आचारांग, द्वितीय, भाव चुलिया अणगारे " "थेरेभगवंते वंदइ
२ पासावच्चिज्जे कालासवेसियपुत्त णामे नमंसइ वंदित्ता नसियत्ता चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जि ताणं विहरइ । --- व्याख्याप्रज्ञप्ति श० १, उद्दे ० १ सू० ७६ 'पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चास पडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ।
- भगवती श० ५, उ० ६, सूत्र ०२२६
४ सूत्रकृताग नालंदीय अध्ययन, २, ७, ७२ ८१ ।