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अरिहन्तदेव स्वरूप : ७६
उपकारी पर उपसर्ग जानकर तुरंत वहाँ आए । पद्मावती देवी ने अपने मुक्ट पर भगवान् को उठा लिया एवं धरणेन्द्रदेव ने सहस्र फणवाले सर्प का रूप धारण करके भगवान् पर अपना फन फैला दिया । इस तरह इस उपसर्ग से उनकी रक्षा की । उपसर्गों को समभावपूर्वक सहने के कारण चार घातीकम का क्षय हो गया और भगवान् को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । अतः उक्त वैरी देव ने आपके चरणों में सिर झुकाकर आप से क्षमायाचना की ।
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इसके पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ ने तीर्थस्थापना की । स्वयं धर्मोपदेश देने लगे । अपने संघ के साधु-साध्वियों को धम-प्रचार के लिए उत्तर भारत, विहार, बंगाल आदि प्रान्तों में भेजा ।
भगवान पार्श्वनाथ का संघ सबसे सुदृढ़ और व्यवस्थित था, ऐसा बौद्ध साहित्य से पता लगता है । भगवान् पार्श्वनाथ से पहले और उनके धर्म - शासनकाल में ब्राह्मणों के बड़े-बड़े समूह थे, जो केवल यज्ञ-याग का ही प्रचार करते थे । दूसरा वर्ग तापसों का था, जो यज्ञ-याग के विरुद्ध थे, किन्तु पंचाग्नि तप, जल-समाधि, कंदमूलभक्षण, आदि को तप मानकर साधना करते थे । वे प्रायः वनवासी थे, लोगों से कम मिलते-जुलते थे, समाज को धर्म का उपदेश, प्रेरणा आदि नहीं देते थे ।
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भगवान् पार्श्वनाथ का साधु-साध्वी संघ चातुर्याम-धर्म का पालन करता था, मोक्षमार्ग पर चलता था, दूसरों को भी यह उपदेश देता था । चातुर्याम इस प्रकार थे
(१) सर्व प्राणातिपात से विरमण, (२) सर्व-मृषावाद से विरमण, (३) सर्व अदत्तादान से विरमण, (४) सर्व - बहिद्धादान से विरमण ।'
इसमें चौथे 'बहिद्धादान - विरमण याम का अर्थ इस प्रकार किया है— बहिद्धा - अर्थात् - मैथुन और आदान यानी परिग्रह; अथवा बहिः अर्थात्धर्मोपकरण के सिवाय, जो आदान अर्थात् - जितना भी परिग्रह (परिग्राह्य पदार्थ) है, वह बहिद्धादान है । मैथुन परिग्रह के अन्तर्गत है, क्योंकि स्त्री भी एक प्रकार से परिगृहीत (परिग्रह) ही होती है ।
१ मज्झिमगाबावीसं अरिहंता भगवंता चाउज्जामं धम्मं पण्णवेंति, तं जहा .... बद्धिदाणाओ वेरमणं । - स्थानांग सू० २२६ वृत्ति पत्र २०१