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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ७७ उनकी बरात में आये हुए अनेक राजाओं को भोज देने के लिए इन पशुओं का वध किया जाएगा। इसीलिए ये पशु बाड़े में बन्द किये गये हैं। उन्होंने तत्काल विवाह न करने का निर्णय कर लिया और सारथि को वहीं से रथ लौटा देने का कहा। जब वे रथ से नीचे उतरकर वापस लौटने लगे तो बरातियों में बड़ा कोहराम मच गया। उस समय उनमें से प्रतिष्ठित लोगों ने अरिष्टनेमि को बहुत समझाया, किन्तु उन्होंने उस समय जो हृदयद्रावक वक्तव्य दिया, वह समस्त यादवजाति के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हुआ ।' जब श्री अरिष्टनेमि को गिरनार के पहाड़ों की ओर जाते देखा, तब राजीमती शोकमग्न हो गई। अरिष्टनेमि को मुनिधर्म में दीक्षित देखकर अन्ततोगत्वा राजीमती ने भी उसी मार्ग का अनुसरण करने का निश्चय कर लिया। श्रीकृष्ण ने राजीमती को दीक्षा के समय बहत ही भावुक शब्दों में आशीर्वाद दिया।२ सचमुच, राजीमती को पूर्वजन्मों का ज्ञान हो गया था कि मेरा और अरिष्टनेमि का सम्बन्ध इस जन्म का हो नहीं, पिछले आठ जन्मों का है। श्री अरिष्टनेमि ने मुनिधर्म में दीक्षित होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं तप की आराधना की। चार घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। तीर्थंकर बने और पूर्ववत् चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करके उपदेश देने लगे। श्रीकृष्ण के प्रिय अनुज गजसूकूमार ने श्री अरिष्टनेमि से दीक्षा ली और उसी दिन बारहवीं भिक्ष प्रतिमा की उत्कृष्ट साधना करके वे सिद्ध-बुद्धमुक्त हो गए। श्रीकष्ण की आठ रानियाँ भो अरिष्टनेमि के पास प्रवजित हुईं। श्रीकृष्ण के अनेक पुत्र और पारिवारिक जन द्वारिकादहन से पूर्व ही दीक्षित होकर अरिष्टनेमि के शिष्य बने । इस प्रकार जैन साहित्य में श्री अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण के वार्तालापों, प्रश्नोत्तरों और विविध चर्चाओं के अनेक उल्लेखों से श्री अरिष्टनेमि तीर्थंकर की ऐतिहासिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना और पशुओं के प्रति. करुणा को जगाने में तोर्थंकर अरिष्टनेमि का बहुत बड़ा हाथ है। १ उतराध्ययन अ० २२, गाथा० २५.२६ २ वही० अ० २२, गा० ३१ ३ अन्तकृत ३, ८, ४ वही० ५, १-८ ५ वही• १, ६-१०; २, :-८, ४, १-१० ६ ज्ञाताधर्मकथा ५, १६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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