SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ७५ लगते । भगवान् के लिए ये सब वस्तुएँ अग्राह्य थीं । अतः वे आगे बढ़ जाते । यों घूमते-घूमते भगवान् ऋषभदेव को एक वर्ष व्यतीत हो गया । एक दिन वे हस्तिनापुर पहुँचे । वहाँ के राजा श्र ेयांस ने एक दिन पूर्व ही रात्रि में स्वप्न देखा था, तदनुसार शान्त अवधूत श्रमण भगवान् ऋषभदेव को देखते ही उसमें दान की भावना उमड़ पड़ी । श्र यांस राजा को जातिस्मरणज्ञान हो गया । उसने अपने राजभवन में रखे हुए इक्ष रस से भगवान् को पारणा कराया । यह पारणा एक वर्ष बाद – वैशाख शुक्ला तृतीया - अक्षयतृतीया को हुआ था । इसी प्रथा का अनुसरण करते हुए श्वेताम्बर जैन वर्षीतप करते हैं, और अक्षयतृतीया के दिन इक्षु रस से पारणा करते हैं । धर्म तीर्थ प्रवर्तन हजार वर्ष की साधना के पश्चात् एक दिन भगवान् पुरिमताल नगर के उद्यान में ध्यानस्थ थे, तभी उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । वे अरिहन्त तीर्थंकर बने । साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकारूप चतुविध तीर्थ (संघ) की स्थापना की । फिर उन्होंने मुनिधर्म के पांच महाव्रतों और गृहस्थधर्म के बारह व्रतों का उपदेश दिया । अपने शिष्य समुदाय के साथ ग्राम-नगर में विचरण करते हुए भगवान् धर्मोपदेश करने लगे । उनकी धर्मसभा का नाम समवसरण था, जहाँ किसी भेदभाव के या पूर्वबद्ध वैर का स्मरण किये बिना देव-देवी और मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी आदि भी यथास्थान बैठ जाते और एकाग्रचित्त होकर उनका धर्मोपदेश श्रवण करते थे । इस प्रकार इस जीवन ( भव) के अन्त तक प्राणिमात्रको हितकर धर्मोपदेश करते रहे। अन्त में, कैलाशपर्वत पर वे समस्त कर्मों को क्षय करके 'निर्वाण' पहुँचे, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए । इस युग (काल) में उनके द्वारा ही जैनधर्म का प्रारम्भ 'हुआ I (२) बाईसवें तीर्थंकर : भगवान अरिष्टनेमि 1 बौद्ध साहित्य निश्चित रूप से तथागत बुद्ध के बाद का ही है । जैन - साहित्य का भी विशाल भाग यद्यपि भगवान् महावीर के पूर्व का तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु भगवान् अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के विषय में उसमें बहुत कुछ मिलता है । 1 श्री अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण दोनों यदुवंशी थे । श्री अरिष्टनेमि समुद्रविजय के और श्रीकृष्ण वसुदेव के पुत्र थे । समुद्रविजय और वसुदेव दोनों सगे भाई थे । इस दृष्टि से श्रीकृष्ण और श्री अरिष्टनेमि चचेरे भाई होने के कारण उनमें परस्पर पारिवारिक सम्बन्ध भी था ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy