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७४ : जैन तत्त्वकलिका ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी चुना । यही राजतन्त्र का क्रम बन गया। विवाह पद्धति
__नाभि अन्तिम कुलकर थे, उनकी पत्नी थी मरुदेवा । इसी से पुत्र के रूप में 'उसभ' या 'ऋषभ' का जन्म हुआ। युगल के एक साथ जन्म लेने और मरने की व्यवस्था क्षीण हो चली। उन्हीं दिनों एक विशेष घटना हो गई। ताड़ के नीचे एक युगल सोया हुआ था। उनमें से बालक के सिर पर ताड़ का फल गिर गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई, बालिका अकेली रह गई। यह उस युग की पहली अकाल मृत्यु थी। अकेली बालिका जब नाभि कुलकर के पास लाई गई तो उन्होंने युवक 'ऋषभदेव' के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया। यहीं से विवाहपद्धति का सूत्रपात हुआ। विद्या-कला-प्रशिक्षण
ऋषभदेव ने जनता को श्रम करना सिखाया। खेती करना, अन्न बोना, काटना, पकाना आदि सब विद्याएँ और विभिन्न शिल्प एवं कलाएँ भगवान् ऋषभदेव ने जनता को सिखाई। दान धर्म का प्रारम्भ
धर्मानुप्राणित नीति के अनुसार लोक व्यवस्था का प्रवर्तन सुचारु . रूप से करके ऋषभदेव राज्य करने लगे। वे दीर्घकाल तक राजा रहे । जीवन के अन्तिम स्वल्प भाग में वे विरक्त हो गये। अपने सब पुत्रों को राज्यभार सौंपा और स्वयं ही. श्रमण बन गये। समौन, निराहार रहकर वे घोर तपश्चरण करने लगे। उनकी देखा-देखी हजारों राजा तथा राजकुमारों ने भी दीक्षा ले ली, किन्तु वे साधुचर्या से अनभिज्ञ थे। साथ ही जनता भी दान-धर्म से अनभिज्ञ थी। साधु को भोजन-पान देने की विधि नहीं जानती थी। इसलिए उन्हें भोजन न मिल सका और वे भूख-प्यास के कष्ट को न सह सके। फलतः वे उत्तम मुनिधर्म से भ्रष्ट होकर सरल पथ पर चलने लगे।
भगवान् तो क्षुधा को परीषह मानकर कर्मनिर्जरा हेतु समभाव से उसे दीर्घकाल तक सहन करते रहे। फिर दीर्घतप के पश्चात् उन्होंने पारणे के लिए प्रस्थान किया, किन्तु उस समय की भोली जनता श्रमण धर्म तथा श्रमण की भिक्षाचरी के नियमों से अनभिज्ञ थी। अतः घोड़ा, हाथी, युवती स्त्री, आभूषण आदि ले-लेकर लोग उनकी सेवा में उपस्थित होकर भेंट करने