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अरिहन्तदेव स्वरूप : ७३
ताएँ बढ़ने लगीं। परिणामस्वरूप अपराध, संघर्ष और अव्यवस्था का प्रारम्भ हुआ। इस स्थिति ने यौगलिक जनता को नयी व्यवस्था के लिए सोचने को मजबूर कर दिया । फलस्वरूप कुलव्यवस्था का विकास हुआ। लोग 'कुल' के रूप में संगठित होकर रहने लगे।
कलों का एक नेता होता था, जो 'कुलकर' कहलाता था। वह कलों की व्यवस्था करता, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखता और अपराधों पर नियंत्रण रखता। यह शासनतंत्र का आदिरूप था।
कुलकर व्यवस्था में तीन दण्डनीतियाँ प्रचलित हुईं—(१) हाकार, (२) माकार और (३) धिक्कार । अन्तिम (सातवें) कुलकर 'नाभि' के समय तक धिक्कारनीति का प्रयोग होने लगा था।
नाभि कुलकर का नेतृत्व चल रहा था। इसी दौरान कल्पवृक्षों से अपर्याप्त साधन मिलने के कारण आपस में संघर्ष होने लगे । जो युगल शान्त और सन्तुष्ट थे, उनमें क्रोध और असन्तोष का उदय होने लगा। परस्पर लड़ने-झगड़ने लगे। इन परिस्थितियों से घबराकर वे नाभिराय से इस विषय में परामर्श करने हेतु पहुंचे। उन्होंने इस समस्या के हल के लिए अपने पुत्र ऋषभकुमार के पास जाने को कहा । ऋषभदेव से जब उन्होंने सारी स्थिति कही तो उन्होंने कर्म करने, राजा बनाने और उसके शासन के नियंत्रण में रहने की आवश्यकता पर बल दिया। फलस्वरूप कुलकर नाभिराय के कहने पर सबने ऋषभदेव को अपना राजा घोषित किया, उनका राज्याभिषेक किया। प्रथम राजा
ऋषभदेव ने राज्य संचालन के लिए जो नगरी बसाई उसका नाम रखा–विनीता (अयोध्या)। लोग अरण्यवास छोड़कर नगरवासी बन गये। युग के प्रथम राजा ऋषभ बने, शेष जनता प्रजा बन गई, जिसका वे अपनी संतान की भाँति पालन करने लगे। ऋषभदेव के क्रान्तिकारी और सुव्यवस्था से युक्त संचालन से कर्मभूमिक युग का श्रीगणेश हुआ। वस्तुओं की आदानप्रदान प्रणाली तथा उनके हिसाब-किताब के लिए वैश्य वर्ग की स्थापना की। अपराधों पर नियंत्रण करने, अपराधी को दण्ड देने, सज्जनों को सुरक्षा एवं न्याय देने के लिए 'क्षत्रिय (आरक्षक) वर्ग की स्थापना की। राज्य की दण्डशक्ति को कोई चुनौती न दे सके, इसके लिए उन्होंने आरक्षक दल तथा चतुरंगिणी सेना आदि की व्यवस्था की। शस्त्रप्रयोग भी सिखाया, परन्तु साथ ही निरपराधी एवं सज्जन पुरुषों पर इसका प्रयोग निषिद्ध बताया।