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७२ : जैन तत्वकलिका
पिणी का अन्त ही अवसर्पिणी का जन्म है । प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के छह-छह आरे (पर्व) होते हैं ।
इस समय हम अवसर्पिणी काल के पंचम आरे में जी रहे हैं । भगवान् ऋषभदेव इसो अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में हुए । अवसर्पिणी काल के ६ भागों में से प्रथम और द्वितीय भाग (आरे) में न कोई धर्म-कर्म होता है, न राजा और न कोई समाज । एक परिवार में पति और पत्नी, ये दो ही होते हैं । पास में लगे वृक्षों से, जो कि कल्पवृक्ष कहलाते हैं, उन्हें अपने जीवन निर्वाह के लिए सभी आवश्यक पदार्थ मिल जाते हैं, उसी में वे प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहते हैं । एक पुत्र और पुत्री को जन्म देकर वे दोनों चल बसते हैं । ये दोनों बालक ही बड़े होने पर पति-पत्नी के रूप में रहने लगते हैं । विवाह प्रथा का प्रारम्भ नहीं हुआ था ।
तीसरे आरे का बहुत-सा अंश बीत जाने पर भी यही क्रम रहता है । इस काल में मनुष्यों का जीवनक्रम भोगप्रधान होने से इसे भोगभूमिकाल कहते हैं । यही यौगलिक व्यवस्था चल रही थी । न कुल था, न वर्ग और न जाति, समाज और राज्य की तो कल्पना ही नहीं थी । जनसंख्या बहुत ही कम थी। जीवन की आवश्यकताएँ भी बहुत ही कम थीं । न खेती होती थी, न वस्त्र बनता था और न मकान। भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्पवृक्ष थे । शृंगार, आमोद-प्रमोद, विद्या, कला, विज्ञान सभ्यता और संस्कृति का तो कोई नाम ही नहीं जानता था । न कोई वाहन था, न कोई यात्री | ग्राम और नगर बसे ही न थे । न घर बने थे । न कोई स्वामी था, न ही सेवक: शासक और शासित या शोषक ओर शोषित भी कोई न था । पारिवारिक सम्बन्ध भी नहीं था । न धर्म था और न ही धर्म-प्रचारक थे ।
शान्त स्वभाव के होते थे । असत्य आदि विकृतियाँ
उस समय के लोग सहज-धर्म पालते थे, निन्दा, चुगली, आरोप, हत्या, मार-काट, चोरी, उनमें नहीं थी । हीनता और उत्कर्ष की भावना भी नहीं थी शस्त्र और शास्त्र दोनों से वे अनजान थे । अन्ब्रह्मचर्य सीमित था । लोग सदा सहज आनन्द और शान्ति में लीन रहने थे ।
कुलकर परम्परा
तीसरा आरा लगभग बीतने आया, तभी सहज समृद्धि का क्रमिक ह्रास होने लगा । कल्पवृक्षों की शक्ति भी क्षीण हो चली। यह कर्मभूमियुग के आने का संकेत था । यौगलिक व्यवस्था टूटने लगी । एक ओर आवश्यकता - पूर्ति के साधन कम हुए तो दूसरी ओर जनसंख्या और जीवन की आवश्यक