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अरिहन्तदेव स्वरूप : ७१
सूर्य से भी अधिक तेजस्वी एवं प्रकाशमान तथा निधूम अग्नि के समान देदीप्यमान होता है।
ऐसे अनन्तगुणों के धारक, सकल-अघ (पाप) निवारक, सम्पूर्ण जगत् के उद्धारक, मोह आदि आन्तरिक शत्रुओं के संहारक, अपूर्व उद्योतकारक, त्रिविधताप के अपहारक, भूमण्डल के भव्यजीवों के तारक, अज्ञानतिमिरविदारक और सन्मार्गप्रचारक तथा नरेन्द्र, सुरेन्द्र, अहमिन्द्र और मुनीन्द्र आदि त्रिलोकी के वन्दनीय, पूजनीय, महनीय, उपास्य, आराध्य और सुसेव्य देवाधिदेव अरिहन्त भगवान् जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं।
चार ऐतिहासिक तीर्थंकरों के जीवन की झाँकी (१) प्रथम तीर्थंकर : भगवान ऋषभदेव
यद्यपि भगवान् ऋषभदेव तक वर्तमान इतिहास नहीं पहुँचा है। किन्तु वैदिक परम्परा में भी भागवत पुराण में ऋषभदेव का जीवन-चरित्र मिलता है। जैनशास्त्रों और पुराणों आदि में तो उनके जीवन के सम्बन्ध में काफी प्रकाश डाला गया है। इसलिए मध्यकालीन अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा ऋषभदेव का स्थान व्यापक है और जैन-जनेतर दोनों समाजों में उन्हें उपास्य देव और पूज्य अवतारी पुरुष माना है। बंगाल आदि कछ प्रान्तों में अवधत आदि पंथों में अवधत या गृहस्थ, अवधुत योगी के रूप में ऋषभदेव के जीवन को अनुकरणीय आदर्श मानते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में आयजाति के वे सामान्य उपास्य देव थे।
__जैन और जैनेतर साहित्य से तथा प्राचीन शिलालेखों से और पुरातात्त्विक उत्खनन तथा गवेषणाओं से यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव इस युग में जैनधर्म आद्य प्रवर्तक तीर्थंकर थे। यौगलिक परम्परा
कालचक्र जगत् के ह्रास और विकास के क्रम का साक्षी है। जब यह कालचक्र नीचे की ओर जाता है, तब ह्रासोन्मुखी गति होती है, जिसे अवसर्पिणी कहते हैं। इसमें भौगोलिक परिस्थिति, मानवीय सभ्यता और संस्कृति की तथा वर्ण-गन्ध-रस-स्पश, सहनन, संस्थान, आयुष्य, शरीर, सूख आदि की क्रमशः अवनति होती है। किन्तु जब कालचक्र ऊपर की ओर जाता है तब इन सबकी क्रमशः उन्नति होती है। इस विकासोन्मुखी गति को उत्सपिणी कहते हैं।
अवसर्पिणो की चरमसीमा ही उत्सर्पिणी का प्रारम्भ है और उत्स
१ चार तीर्थंकर (पं० सुखलालजी), पृ० ८