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६२ : जैन तत्त्वकलिका
की रानी नन्दादेवी से श्री शीतलनाथजी का जन्म हुआ। समस्त जीवों का सन्ताप-हरण करने से तथा भगवान् जब माता के गर्भ में थे, उस समय आपके पिता को पित्तदाह का रोग था, वह वैद्यों के उपचारों से शान्त नहीं हो सका। किन्तु भगवान् की माता के स्पर्श से रोग शान्त हो गया उसकी तपन मिट कर शीतलता व्याप्त हो गई। इस प्रकार गर्भस्थ जीव का माहात्म्य जानकर भगवान् का नाम 'शीतलनाथ' रखा गया।
आपके शरीर का वर्ण स्वर्ण के समान पीला और लक्षण श्रीवत्स का था। देहमान ६० धनुष और आयुष्य १ लाख पूर्व का था। पौन लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रहे और पाव लाख पूर्व तक संयम पालन करके अन्त में एक हजार (१०००) मुनियों के साथ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। (११) श्री श्रेयांसनाथजी
छयासठ लाख छब्बीस हजार एक सौ सागर कम एक करोड़ सागरोपम के पश्चात् सिंहपुरी नगरी में, विष्ण राजा की विष्णुदेवी रानी से ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथजी का जन्म हुआ। जगत् के सर्वप्राणियों का श्रेय-कल्याण करने से तथा भगवान् जब गर्भवास में थे, तब आपके पिता के घर में एक देवाधिष्ठित शय्या थी । उस पर कोई भी बैठ नहीं सकता था। यदि कोई बैठता तो उसे असमाधि उत्पन्न हो जाती थी। किन्तु गर्भ के . प्रभाव से रानी को उस शय्या पर सोने का दोहद उत्पन्न हुआ। अतः वह उस शय्या पर सो गई। किन्तु गर्भस्थ भगवान के अतुलनीय प्रभाव से देवता ने किसी भी प्रकार का उपसर्ग नहीं किया; इस कारण से भगवान् का नाम 'श्री श्रेयांसनाथ' रखा गया।
__ इनके शरीर का वर्ण सोने-सा पोला और लक्षण था-गेंडे का । आपका शरीरमान ८० धनुष का और आयुष्य ८४ लाख वर्ष का था। जिसमें से ६३ लाख वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रहे, तत्पश्चात् २१ लाख वर्ष तक संयम-पालन किया। अन्त में एक हजार (१०००) मुनियों के साथ मोक्ष पहुँचे। (१२) श्री वासुपूज्यजी
तदनन्तर ५४ सागरोपम व्यतीत होने पर चम्पापुरी नगरी में वसुपूज्य राजा की जयादेवी रानी की कुक्षि से बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य का जन्म हुआ। वसुपूज्य राजा के पुत्र होने से, अथवा वसु-देवों द्वारा पूजनीय होने से तथा श्रीभगवान् जब गर्भावस्था में थे, तब वसु (हिरण्य-सुवर्णरूप धन) द्वारा वैश्रमण देव ने घर को पूरा भर दिया था, इसलिए श्री भगवान् का