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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ५३ या कष्ट (परीषह) आने पर वे किसी से - यहाँ तक कि अपने भक्त देवी-देवों, इन्द्र या नरेन्द्रों तक से भी सहायता नहीं चाहते ―न लेते हैं, वे एकाकी ही अपने पुरुषार्थ के बल पर समत्वसाधना की सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते हैं और दुष्कर तपश्चरण एवं उपसर्ग सहन करके चार घनघाती कर्मों का क्षय करके वीतरागत्व - जिनेन्द्रत्व को प्राप्त कर लेते हैं । ' अर्हत्पद प्राप्ति का क्रम पद प्राप्ति का क्रम इस प्रकार है सर्वप्रथम दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय होने से अनन्त आत्मगुणरूप यथाख्यातचारित्र की प्राप्ति होती है । मोहनीय कर्म का क्षय होते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मों का एक साथ नाश हो जाता है । ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलज्ञान प्राप्त होता है । केवलज्ञान प्राप्त होने से वे समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव को जानने लगते हैं - सर्वज्ञ हो जाते हैं । दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलदर्शन की प्राप्ति होती है जिससे वे पूर्वोक्त द्रव्यादि पाँचों को देखने लगते हैं - सर्वदर्शी हो जाते हैं । अन्तरायकर्म का क्षय होने से अनन्त दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि और वीर्यलब्धि की प्राप्ति होती हैं, जिससे वे अनन्त शक्तिमान होते हैं। केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त होने के बाद ही वे धर्मोपदेश देते हैं और त्यागी तथा गृहस्थ शिष्य बनाते हैं । उपर्युक्त चारों घनघाती कर्मों के क्षय होने पर ही अरिहन्त ( तीर्थंकर), पद की प्राप्ति होती है, और वे पूर्वोक्त १२ गुणों, चार कोटि के अतिशयों, १ (क) मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्णं केन कानने । स्वबलेनैव जिनेन्द्राः गच्छन्ति परमं पदम् ॥ (ख) इंदा ! न एवं भूयं, न एवं भव्वं, न एवं भविस्सइ, जं अरिहन्ता " २ देखो, हारिभद्रीय 'योगबिन्दु' - महावीरचरियं
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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