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५४ : जैन तत्त्वकलिका
अथवा ३४ अतिशयों और ३५ वाणी के अतिशयों (गुणों) से युक्त तथा अठारह दोषों से रहित होते हैं ।
उपर्युक्त चार घनघातीकर्मों का क्षय होने के पश्चात् (१) वेदनीय, (२) आयुष्य, (३) नाम और (४) गोत्र, ये चार अघाती कर्म शेष रह जाते हैं । ये चारों कर्म शक्तिरहित होते हैं । जैसे-भुना हुआ बीज अंकुर को उत्पन्न नहीं कर सकता, उसी प्रकार ये अघातीकर्म अरिहन्त भगवान् की आत्मा में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं कर सकते । तीर्थंकर भगवान् की आयु पूर्ण होने पर आयुष्य के साथ ही शेष समस्त कर्मों का भी क्षय हो जाता है ।
तीर्थंकरों के जीवन के महत्त्वपूर्ण पंचकल्याणक
तीर्थंकरों के जीवन में पांच प्रसंग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अर्थात्-परमकल्याणकारी माने जाते हैं । इसलिए वे जैन जागत् में पंचकल्याणक के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
१ – देवलोक या नरक से च्यवन कर माता के गर्भ में अवतरित होने ( आने) को प्रथम - ' च्यवन-कल्याणक' कहते हैं ।
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२ - तत्पश्चात् जन्म लेने को द्वितीय 'जन्मकल्याणक' कहते हैं। ३ – इसके बाद जब भावी तीर्थंकर गृहादि का त्याग करके संयमी जीवन की दीक्षा लेते है, तब उसे तृतीय - 'दीक्षा कल्याणक' कहा जाता है ।
४ - जब उन्हें संयम, समत्वयोग, तप एवं सुध्यान के योग से केवलज्ञान प्राप्त होता है, तब वह चतुर्थ - 'केवलज्ञानकल्याणक' कहलाता है ।
५— - जब वे समस्त कर्मों का क्षय करके, मन, वचन, काया का एवं जन्म-मरण का सदा के लिए त्याग करते हैं, तब उस पंचम प्रसंग को 'निर्वाणकल्याणक' कहते हैं ।
इन पाँचों कल्याणकों को विशेष पर्व मान कर जैनधर्मानुयायी उस तिथि को उक्त तीर्थंकर की विशेष भक्ति भावपूर्वक उपासना-आराधना करते हैं, तथा तप-संयमादि गुणों की वृद्धि करके अपने आत्मकल्याण में प्रगति करते हैं।