________________
५२ : जैन तत्त्वकलिका
वे किसी के उपदेश के बिना स्वयं बोध पाकर गृहादि का त्याग करते हैं। उनका कोई गुरु नहीं होता ।' ।
गृहादि-त्याग के कुछ काल पूर्व उनके वैराग्य की अनुमोदना करने हेतु अपने कल्प के अनुसार नौ लोकान्तिक देव देवलोक से आकर इस प्रकार के वचन बोलते हैं
भयवं ! तित्थं पवत्तह 'भगवन् ! तीर्थ-प्रवर्तन (तीर्थ स्थापन) कीजिए।'
लोकान्तिक देवों का इस प्रकार का कल्प (जीत-व्यवहार) होने से उनके ये वचन उपचाररूप होते हैं, प्रतिबोध रूप या उपदेशरूप नहीं होते।
तीर्थंकर भगवान् पूर्वजन्मों की ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि-साधना के फल स्वरूप वर्तमान भव में दूसरों के उपदेश के बिना जीवादिरूप तत्त्वों को यथावस्थित अविपरीत रूप से जानते हैं। चतुर्थ ज्ञान की प्राप्ति
तीर्थंकर 'करेमि सामाइयं' से समतायोग की साधना की प्रतिज्ञापूर्वक जब तीन करण और तीन योग से आरम्भ-परिग्रह का त्याग करते हैं, तभी (इस प्रकार की जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण करते ही) उन्हें मनःपर्यव (मन के स्थूल और सूक्ष्म भावों को प्रत्यक्ष जान सकने वाला चतुर्थ ज्ञान) प्राप्त हो जाता है। उत्कट तपःसाधना
तीर्थकर पूर्वोक्त समतायोग (सामायिक) के साधना काल में एकाकी रूप से निःसंग भाव से वायु की भांति अप्रतिबद्धतापूर्वक विचरण करते रहते हैं। छद्मस्थ-अवस्था में रहते हुए वे किसी को न तो धर्मोपदेश देते हैं और न ही शिष्य बनाते हैं। छद्मस्थ-अवस्था में एकाकी रहकर वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की उत्कृष्ट एवं कठोर शुद्ध साधना करते हैं । उत्कट तपश्चर्या करते समय तीर्थंकरों पर यदि देव-दानव-मानव-तियञ्च सम्बन्धी उपसर्ग आते हैं, तो उन्हें वे पूर्ण समभाव से (बिना रोष-तोष या राग-द्वेष के) सहते हैं। किसी-किसी तीर्थंकर को उपसर्ग नहीं भी आते । परन्तु उपसर्ग, संकट १ यद्यपि भवान्तरेषु तथाविधगुरुसन्निधानायत्तबुद्धास्तेऽभूवन्, तथापि तीर्थंकरजन्मनि
परोपदेश निरपेक्षा एव बुद्धाः । -योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति पृ० ३१८ २ नमो आयासुब्ध निरासय गुण संसोहियाणं अरिहंताणं'--आकाश की भाँति निरालम्बन (निराश्रय) गुण से शोभायमान अरिहंतों को नमस्कार हो ।
-अर्हन्नमस्कारावली