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अरिहन्तदेव स्वरूप : ५१
जन्म महोत्सव करती हैं । चौंसठ इन्द्र आदि देव अपने जीतव्यवहार (परम्परागत व्यवहार) के कारण तीर्थंकरों को मेरुपर्वत के पण्डकवन में ले जाकर बहुत ही उमंग और धूमधाम से उनका जन्म महोत्सव मनाते हैं। तत्पश्चात् तीर्थंकर के माता-पिता अपने यहाँ जन्म-महोत्सव करके उनका नाम रखते हैं।
निम्नलिखित चार विशेषताएँ तीर्थंकरों के जन्म से होती हैं
(१) उनका शरीर लोकोत्तर अद्भुत स्वरूप वाला होता है । उसमें प्रस्वेद (पसीना), मैल या रोग नहीं होता;
(२) उनका श्वासोच्छ्वास सुगन्धमय होता है; (३) उनके रक्त और मांस का रंग दूध जैसा श्वेत होता है; और
(४) उनका आहार और नोहार (मलविसर्जन क्रिया) सामान्य मानव के चर्मचक्ष ओं द्वारा दृष्टिगोचर नहीं होता।' बाल्य एवं युवावस्या
तीर्थंकर बाल्यकोड़ा करके यौवनवय में आने पर यदि भोगावली कर्म का उदय होता है तो उत्तम कुल की श्रेष्ठ नारी के साथ विधिवत् पाणिग्रहण करते हैं। वे मनुष्य के पंचेन्द्रियजन्य पांचों प्रकार के काम-भोग रूक्ष (उदासीन) भाव से अनासक्तवृत्ति से भोगते हैं; अर्थात् - उनमें उन्हें मूर्छा (आसक्ति) नहीं होती। वो-शान _____ तीर्थकर दीक्षा ग्रहण करने से पहले एक वर्ष तक प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वणमुद्राओं का दान देते हैं । इस प्रकार वे एक वर्ष में कुल तीन अरव, अठासी करोड़ स्वर्णमुद्राओं का दान दे देते हैं .३ इसके पश्चात् वे गृहत्याग करके स्वयं प्रवजित होते हैं। तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध होते हैं, अर्थात
१ समवायांगसूत्र २ नमो पंचविहेसु माणसभोगेसु अमुच्छियाणं अरिहंताणं-अर्थात् 'मनुष्य
सम्बन्धी पाँच प्रकार के भोगों में मूच्छित-आसक्त न होने वाले अरिहन्त भगवंतों को नमस्कार हो।'
-अर्हन्नमस्कारावलिका, सूत्र ३२ ३ नमो वरवरिआघोपपुव्वं संवच्छरिन -दाण-दायगाणं अरिहंताणं ।
अर्थात्- 'वरवटिका (इच्छित वस्तु का दान देने के लिए की जाने वाली घोषणा) पूर्वक सांवत्सरिक (वार्षिक) दान देने वाले अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो।'
-अर्हन्नमस्कारावलिका, सूत्र ३७ ४ सयं-संबुद्धाणं'
__-शकस्तवपाठ