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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ४६ इस वर्णन से यह निश्चित समझ लेना चाहिए कि जो-जो जीव इस विश्व में तीर्थंकर होते हैं, वे किसी परमात्मा के अवतार नहीं होते, किन्तु समस्त तीर्थकर पृथक्-पृथक् आत्माएँ हैं । जैनधर्म अवतारवादी नहीं, अपितु उत्तारवादी है । उत्तारवाद का अर्थ है - नीचे से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक क्रमशः ऊपर उठते-उठते मनुष्य रूप में जन्म लेकर स्वयं पुरुषार्थ से तीर्थंकरत्व प्राप्त करते हैं, फिर अपने ही पुरुषार्थ से आत्मस्वरूप का विकास करने का अभ्यास पराकष्ठा पर पहुँचने पर समस्त कर्मरूप आवरणों को विध्वस्त करके पूर्णरूप से वे जीव अपना चैतन्य - विकास सिद्ध कर लेते हैं, अर्थात् संसार के जन्ममरण रूप चक्र सदा के लिए तोड़ देते हैं और उत्थान की पराकाष्ठा पर पहुँच जाते हैं, स्वयं निरंजन-निर्विकार परमात्मा बन जाते हैं । अवतारवाद का अर्थ है - इतनी सर्वोच्च भूमिका पर पहुँचकर भी पुनः संसार में परमात्मा के आंशिक अथवा पूर्ण रूप में अवतार लेना - जन्म लेना । किन्तु मुक्त होने के बाद संसार में पुनः अवतार लेने की अयुक्तिक बात जैनधर्म को मान्य नहीं है । तीर्थंकर देवों की कुछ विशेषताएँ माता को उत्तम स्वप्न दर्शन देव अथवा नारक का आयुष्य पूर्ण करके अर्हन्- तीर्थंकर पद को प्राप्त करने वाला आत्मा जब मनुष्यलोक के १५ कर्मभूमिक क्षेत्रों में से किसी क्षेत्र में माता के गर्भ में आते हैं, तब माता चौदह सुन्दर स्वप्न देखती हैं। गर्भावस्था में ही तीर्थंकर के जीव को तीन ज्ञान - मति, श्रुत और अवधिज्ञान — होते हैं, जिससे प्रसंग आने पर वे इन ज्ञानों का उपयोग करके वस्तुस्थिति को जान देख सकते हैं । जन्म महोत्सव सवा नौ महीने पूर्ण होने पर, चन्द्रबल आदि उत्तम योग में शुभ मुहूर्त्त १ चौदह स्वप्न - ( १ ) ऐरावत हाथी, (२) धोरी (श्वेत) वृषभ, (३) शार्दूलसिंह, (४) लक्ष्मी देवी, (५) पुष्पमाला - युगल, (६) पूर्ण चन्द्रमा, (3) सूर्य, (८) इंद्रध्वजा, ६) पूर्णकलश, १०) पद्मसरोवर, (११) क्षीरसागर, (१२) देवविमान, (१३, रत्नराशि और (१४) निर्धूम अग्निज्वाला ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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