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४८ : जैन तत्त्वकलिका
(२) प्रवचन प्रभावना का दूसरा अर्थ है -अभिमान छोड़कर ज्ञान-दर्शनचारित्ररूप मोक्षमार्ग को जीवन में उतारना और दूसरों को उसका उपदेश देकर प्रभाव बढ़ाना, प्रभावित करना। इसे मोक्षमार्ग प्रभावना भी कहा जाता है।
(३) प्रवचन प्रभावना का तीसरा अर्थ है-तीर्थंकरों द्वारा स्थापित धर्मसंघ की उन्नति करना, संघ को ज्ञान, दर्शन-चारित्र से समद्ध बनाना, संघ में स्नेह-वात्सल्य बढ़ाकर उससे दूसरे लोगों को प्रभावित करना, संघ में नये प्रवेश करने वाले अनुयायियों को धर्म में सुदृढ़ करना, उनको सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र में स्थिर रखने हेतु प्रयत्नशील रहना, सहयोग देना ।।
इस प्रकार की उत्कृष्ट प्रवचन प्रभावना से जीव तीर्थंकर नामगोत्र . कर्म अवश्य ही उपाजित कर सकता है।
उपयुक्त बीस कारणों से जब जीव तीर्थकरगोत्रनामकर्म का निबंधन कर लेता है, तब बीच में देवलोक या नरक का एक भव करके तीसरे भव में वह तीर्थंकर-अरिहन्त पद को प्राप्त करता है। इस भव में वह मनुष्य लोक में उत्तम कुल में जन्म धारण करके गृहवास का त्याग करके मुनिवृत्ति धारण कर लेता है। मुनिवत्ति, रत्नत्रय एवं तप की उत्कृष्ट आराधना करके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चारों घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लेता है, जिससे वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, वीतराग, अर्हन् बन जाता है। फिर वह अपने पवित्र उपदेशों द्वारा साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ (संघ) की स्थापना करता है, जिससे अनेक भव्य जीव अपना आत्मकल्याण करते हुए मोक्ष पद को प्राप्त कर लेते हैं।
तीर्थकर और अवतार में अन्तर वैदिक परम्परा के धर्मशास्त्रों में जिस प्रकार काल के कृत (सत्) युग आदि चार विभाग किये गये हैं, उसी प्रकार जैन शास्त्रों में काल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामक दो मुख्य विभाग करके प्रत्येक को छहछह आरों में विभक्त किया गया है। इन बारह आरों का एक पूर्ण कालचक्र होता है। - तीर्थंकर इसी कालचक्र के तीसरे-चौथे आरे में हमारी ही तरह मनुष्य के रूप में होते हैं । जो तीर्थंकर अथवा अरिहन्त केवली आयुष्य पूर्ण होने पर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं, वे सदा के लिए शाश्वत स्थान-मोक्ष में जा विराजते हैं । वे पुनः संसार में नहीं आते।