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अरिहन्तदेव स्वरूप : ४७
ऐसी ज्ञानसमाधि उत्पन्न नहीं होती, तब तक आत्मा में अन्य समाधियों का प्रादुर्भाव संभव नहीं है, और ज्ञानसमाधि के प्रादुर्भाव के लिए अपूर्व ज्ञान ग्रहण करना अनिवार्य है ।
जैसे सूर्य के प्रकाश से अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानरूपी अन्धकार का भी स्वयमेव अभाव हो जाता है | जब अज्ञान नष्ट हो जाता है तब आत्मा में समाधि उत्पन्न हो ही जाती है ।
(१६) श्रुतभक्ति - श्रुत ( शास्त्र, आगम या सिद्धान्त) के प्रति श्रद्धाभक्ति श्रु तानुसार या श्रु ताज्ञानुसार प्रवृत्ति करने से भी जीव तीर्थंकरनामकर्म का उपार्जन कर सकता है ।
श्रुत-भक्ति की विधि क्या है ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जिस प्रकार गुरुभक्ति की जाती है उसी प्रकार श्रुतभक्ति होनी चाहिए । गुरुभक्ति का मुख्य उद्देश्य गुरु आज्ञा पालन करना है, उसी प्रकार श्रुत की आज्ञानुसार धार्मिक क्रियाएँ करना श्रुतभक्ति है । साथ
तं की अविनय - अभक्ति न करना, जिज्ञासु और योग्य व्यक्ति को शास्त्रज्ञान (श्रत) सहर्ष प्रदान करना, जनता के हृदय में श्रुत का महत्त्व बिठाना, जिससे वह श्रुत का बहुमान कर सके, श्रुतश्रवण-मनन-निदिध्यासन कर सके, श्रुतवाक्य को हृदयंगम करके श्रुत कथनानुसार अपने जीवन को पावन कर सके
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शास्त्र में बताया है कि श्रुत की आराधना करने से अज्ञान और क्लेश दोनों नष्ट हो जाते हैं । क्लेश भी तभी तक टिकता है, जब तक अज्ञान है । अतः सिद्ध हुआ कि श्रुतभक्ति द्वारा तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध करके जीव अनेक आत्माओं का कल्याण करता हुआ मोक्षगमन कर लेता है ।
(२०) प्रवचन प्रभावना - तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट या रचित प्रवचन (शास्त्र अथवा संघ ) की प्रभावना करने से जीव तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर सकता है ।
प्रवचन प्रभावना का एक अर्थ है- भगवदुपदिष्ट द्वादशांगी प्रवचनों का बार-बार स्वयं स्वाध्याय करके अपने हृदय में अनुप्रेक्षापूर्वक उसे स्थापित करना और भव्य आत्माओं को प्रमाद छोड़कर शास्त्रविहित उपदेश सुनाकर उनके हृदय में उनका प्रभाव बिठाना । सच्ची प्रभावना तो तभी हो सकती है, जबकि इस ढंग से शास्त्र सुनाये जाएँ जिन्हें सुनकर भव्य जीव प्रभावित होकर संसार- विरक्त हो सकें और मोक्षमार्ग की आराधना कर सकें ।