________________
४६ : जैन तत्त्वकलिका
(शिक्षा) देखकर उनकी शुश्र षा करने से, (२) गरु आदि की शिक्षा को सम्यक प्रकार से स्वीकार करने से, (३) उनकी आज्ञा का पालन करके विनम्रतापूर्वक आराधना करने से, और (४) अभिमानग्रस्त होकर आत्मा को मद से मत्त न करने से।
___ तपःसमाधि भी चार प्रकार से प्राप्त होती है—(१) इहलोक के लिए (२) परलोक के लिए; और (३) कीर्ति, वर्ण (प्रशंसा), शब्द एवं श्लोक के लिए तपस्या न करने से किन्तु (४) एकान्त निर्जरा (आत्मशुद्धि) के लिए तप करने से । जो साधक विविध प्रकार के तपश्चरण में रत रहता है, बिना थके (परिश्रान्त) हुए निर्जरा के लिए तप करता है, वह सदा तपःसमाधि से युक्त होकर अपने पुरातन कर्मों को नष्ट कर डालता है।
आचारसमाधि भी चार प्रकार से सम्पन्न होती है। यथा-(१-२-३) इस लोक, परलोक, या कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए आचार का पालन न करे, (४) केवल आहत्पद (वीतरागता) के कारणों से आचार का अनुष्ठान करे । जिनवचन में रत, रोषरहित (शान्त), दान्त एवं वीतरागभाव में संलग्न संवत्त मुनि आचारसमाधि से सम्पन्न होता है।'
___ इस प्रकार आत्मा में पूर्वोक्त तीनों प्रकार की अथवा इन चारों प्रकार. की भावसमाधि उत्पन्न करके साधक अशुभ एवं क्लेश-कलुषित कर्मों का क्षय करके तीर्थंकर नामगोत्रकर्म का उपार्जन कर लेता है।
____तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार इस पद का समग्र रूप है-संघ-साधु-समाधिकरण जिसका अर्थ किया गया है-चतुर्विध संघ और विशेषकर साधुओं को समाधि (आत्मशान्ति) पहँचाना; जिससे वे तन-मन से स्वस्थ रह सकें।
___(१८) अपूर्वज्ञान- अपूर्व-अपूर्व (नया-नया) ज्ञान ग्रहण करने सीखने से भी तीर्थंकर नामकर्म बंधता है। ____ज्ञान से हेय, ज्ञय और उपादेय के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानना और हृदय में सम्यक् रूप से स्थापित करना अपूर्व ज्ञान ग्रहण है। किसी भो पदार्थ का यथावस्थित ज्ञान होने या नया-नया ज्ञान सीखने से आत्मा में अचिन्तनीय, अनिर्वचनीय, अलौकिक आनन्द उत्पन्न होता है । उस आनन्द के प्रभाव से उसकी आत्मा में सदैव समाधि बनी रहती है, उसका चित्त प्रफुल्ल एवं प्रसन्नता से ओत-प्रोत रहता है। तात्पर्य यह है कि जब तक १ दशवकालिक सूत्र अ० ६, उद्देशक ४, श्लो० १ से ४ तक २ तत्त्वार्थ सूत्र अ० ६ सू०२३, विवेचन पं० सुखलालजी, पृ० १६३