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अरिहन्तदेव स्वरूप : ४३
ध्यानपूर्वक तपश्चरण किया गया हो। उससे आत्मा शक्तिमान, तेजस्वी, स्वस्थ और आनन्दमय होता है । आत्मा में शुद्ध तपश्चरण से कष्ट सहिष्णुता, तितिक्षा, आत्मशक्ति, मनोबल, परीषहोपसर्गसहन शक्ति, अशुभ कर्मों के क्षय हो जाने से मनःसमाधि बढ़ती है । इससे सर्वज्ञता सर्वदर्शिता तक प्राप्त हो जाती है ।
यथाशक्ति तपश्चरण का फलितार्थ यह भी होता है कि अपनी शक्ति छिपाये बिना विवेकपूर्वक बाह्य और आभ्यन्तर तप का अभ्यास अहर्निश करते रहना चाहिए । यद्यपि तपश्चर्या से आमषौषधि आदि अनेक लब्धियाँ तथा शाप - आशीर्वाद प्रदान करने की शक्ति आदि कई उपलब्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं, कई दुःसाध्य शारीरिक रोग भी मिट जाते हैं, तथापि आत्मशुद्धि के इच्छुक साधक को इन सब फलाकांक्षाओं को छोड़कर तपश्चरण करना चाहिए। ऐसा तप ही तीर्थंकरत्व प्राप्ति का कारण होता है ।
(१५) यथाशक्ति त्याग — अपनी शक्ति को जरा भी छिपाये बिना आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान, औषधदान आदि से अथवा वस्त्र, आहार, उपकरण आदि साधनों का त्याग प्रत्याख्यान करने से व्यक्ति तीर्थंकरत्व की प्राप्ति कर सकता है ।
इन दानों में श्रुत (ज्ञान) दान सबसे बढ़कर है और दानों से तो इहafaa और पारलौकिक सुख ही मिल सकते हैं किन्तु श्रुतदान से मोक्ष के अनन्त (असीम सुखों की प्राप्ति भी हो सकती है तथा इहलोक में असीम अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है ।
इतना ही नहीं, श्रुतज्ञान के प्रचार से अनेक आत्माएँ अज्ञान और मिथ्यात्व से बचकर रत्नत्रय की साधना द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकती है । उचित सुपात्र को दान देने से भी पुण्यवृद्धि होती है ।
इस प्रकार दान की प्रबल भावना और अहर्निश सुपात्रदान से तीर्थं - करनामकर्म का अनायास ही बन्ध हो सकता है ।
(१६) वैयावृत्यकरण - (१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) तपस्वी, (४) नवदीक्षित, (५) ग्लान (रोगादि से क्षीण), (६) स्थविर, (७) गण, (८) कुल, (E) संघ, (१०) साधु तथा समनोज्ञ ( ज्ञानादि गुणों में समान अथवा समान शील, साधर्मिक) इन दस सेव्य । सेवायोग्य पात्रों) पुरुषों की यथायोग्य एवं यथोचित रूप से श्रद्धा भक्तिपूर्वक सेवाशुश्र षा, परिचर्या एवं संकट निवारण में सहयोग प्रदान करना, इन्हें सुख-शान्ति एवं समाधि पहुँचाना वैयावृत्यकरण है ।