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४२ : जैन तत्त्वकलिका
क्षण-क्षण में अथवा प्रत्येक क्षण संवेगभाव धारण करना अथवा अनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) में अपने जीवन के क्षण व्यतीत करना अथवा धर्मध्यान और शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का क्षय (क्षण= नाश) करना अथवा अपने जीवन के क्षण-लव को शुद्धोपयोग में व्यतीत करना; ये अर्थ ग्रहण करने चाहिए।
__ जन्म-मरणरूप संसार अथवा सांसारिक भोग वास्तव में सूख के बदले दुःख के ही साधक बनते हैं, यह सोचकर संसार में या सांसारिक भोगों से उद्विग्न होना, डरना या उपरत होना अथवा उनमें न ललचाना संवेग भाव है।' संवेग और वैराग्य का बीजवपन होता है जगत्-स्वभाव एवं काय-स्वभाव का चिन्तन–अनुप्रेक्षा करने से । इस प्रकार संवेग-वैराग्य भाव में, अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षाओं में, शुभध्यान, मौन, तत्त्वचिन्तन एवं शुद्धोपयोग-आत्मा के शुद्ध स्वभाव के चिन्तन में, अपने जीवन के प्रत्येक पवित्र एवं अमूल्य क्षण को बिताने से अनायास ही पुरातन कर्मों का क्षय होने से तथा क्षयोपशमभाव से तीर्थकरनामकर्म का उपार्जन हो जाता है।
(१४) यथाशक्ति तपश्चरण-यथाशक्ति बाह्य और आभ्यन्तर तप की आराधना करते रहने से, अपना जीवन तपोमय बनाने और तपश्चर्या से अपनी आत्मशुद्धि तथा अशुभ कर्म की निर्जरा करने से भी तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित हो जाता है।
शत यह है कि वह तप प्रदर्शन, आडम्बर, यश-कीर्ति, प्रतिष्ठा, निदान (नियाणा), लब्धि, सिद्धि, चमत्कार प्रदर्शन अथवा लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ, अविवेक, अहंकार, प्रतिस्पर्धा, आवेश, क्रोध आदि के वश न किया गया हो; तभी वह उपयुक्त फलदायी होता है।
- इसी का समर्थन तपःसमाधि के सन्दर्भ में दशवकालिक सूत्र में मिलता है।
तात्पर्य यह है कि तपःसमाधि तभी प्राप्त हो सकती है, जब अतःकरण के उल्लास, उमंग, उत्साह एवं शारीरिक-मानसिक समाधि एवं शुभ
१ तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन पं० सुखलालजी, नया संस्करण पृ० १६३ २ 'जगत्कायस्वाभावी च संवेग-वैराग्यार्थम् ।' -तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ७, सू० ७
न इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, न परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, न कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तव महिट्ठिज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा।
--दशवकालिक अ० ६, उ० ४