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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ४१ में अपने व्रत, नियम और अन्य प्रवृत्तियों में लगे हुए मानसिक, वाचिक एवं कायिक अतिचारों — दोषों की विशुद्धि होती है; सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप मोक्षमार्ग में असावधानी एवं प्रमाद, कषाय एवं अशुद्ध मन-वचन-काया के योगों से कोई दोष लग गया हो तो उसकी विशुद्धि प्रतिक्रमण आवश्यक के अन्तर्गत आलोचना, निन्दना ( आत्मनिन्दा - पश्चात्ताप ), गर्हणा (गुरुसाक्षी से आत्मालोचना), प्रतिक्रमण (पीछे हटना ), पंचपरमेष्ठी वन्दना, प्रायश्चित्तादि तथा मैत्री, क्षमा आदि भावना से हो जाती है । इस प्रकार की आवश्यक क्रिया से आश्रव रुक जाता है, नूतन कर्मों का संवर हो जाता है, निर्जरा द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय हो जाता है जिससे निर्वाणपद के निकट आत्मा पहुँच जाता है । इस प्रकार आवश्यक क्रिया को हार्दिक श्रद्धा-भक्ति एवं उत्साह, उल्लास के साथ नियमित रूप से अनिवार्य समझकर करने से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन हो जाता है । (१२) निरतिचार रूप से शील- व्रत पालन - 'शील' शब्द उत्तरगुणों से सम्बन्ध रखता है और 'व्रत' शब्द मूलगुणों से । मूलगुण अहिंसा, सत्य, अचौर्य, आदि पाँच महाव्रतया पाँच अणुव्रत हैं; और उत्तरगुण हैं - नियम - त्यागप्रत्याख्यानादि अथवा छठे दिशापरिमाण नामक गुणव्रत से लेकर बारहवें अतिथिसंविभाग व्रत नामक शिक्षाव्रत तक के गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत । इस प्रकार व्रत और शील में, ' अर्थात् - मूलगुणों और उत्तरगुणों में असावधानी, भूल या प्रमाद से भी शास्त्रोक्त किसी भी प्रकार का अतिचार या दोष न लगने देना; निरतिचाररूप से व्रतों और शीलों का पालन करना, शुद्धतापूर्व गृहीत व्रतों और शीलों की साधना करना तीर्थंकरत्व प्राप्ति का कारण है । श्रद्धा और ज्ञानपूर्वक स्वीकृत व्रतों और शीलों में किसी प्रकार की मलिनता न आने देने से अर्थात् - उनका शुद्धतापूर्वक दृढ़ता से पालन करने से आत्मबल, मानसिक शक्ति, संकल्प शक्ति एवं दृढ़ता बढ़ती है, आत्मविकास एवं अलौकिक आत्मप्रकाश होने लगता है, जिसके कारण सहज ही तीर्थंकरनामकर्म के उपार्जन का द्वार खुल जाता है । (१३) क्षण-लव (अभीक्ष्ण-संवेग भाव ) की साधना - यों तो क्षण और लव ये दोनों शब्द कालवाचक हैं । किन्तु क्षण-लव शब्द के उपलक्षण से १ देखें, ' व्रतशीलेषु पंच-पंच यथाक्रमम् तथा इस पर विवेचन पं० सुखलालजी सम्पादित तत्त्वार्थसूत्र— नया संस्करण, पृ० १८६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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