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४० : जैन तत्त्वकलिका
साध्वी, गण, कुल एवं संघ, साधु आदि की सेवा-उपचार विनय करना विनय सम्पन्नता है।
ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास जारी रखना और विस्मृत न होना ज्ञानविनय है।
तत्त्व की यथार्थ प्रतीति-स्वरूप सम्यग्दर्शन से विचलित न होना, उसके सम्बन्ध में उत्पन्न होने वाली शंकाओं का निवारण करके निःशंकभाव से साधना करना दर्शनविनय है। ___सामायिक आदि चारित्रों में चित्त को समाहित रखना चारित्रविनय है।
जो साधक अपने से सद्गुणों में श्रेष्ठ हो, उसके प्रति अनेक प्रकार से यथोचित व्यवहार करना; जैसे-उनके सम्मुख जाना, उनके आने पर खड़े होना, आसन देना, वन्दन करना, उन्हें आदर देना इत्यादि उपचारविनय है।'
इस चारों प्रकार के विनय से आत्मविशुद्धि होती है; अहंकार, उद्धतता एवं स्वच्छन्दता के भावों का नाश होता है। अहंकारादि के मिटते ही आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र से समृद्ध एवं उन्नत होती है, वह समाधिभाव में या स्वरूप रमणता में लग जाती है। विनय से जीवन पवित्र एवं उच्चकोटि का होता है, विनयी आत्मा का विनय देखकर अनेकों जोवों को विनय' की प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार की विनयसम्पन्नता से जीव तीर्थंकरगोत्रनामकर्म का उपार्जन कर लेता है।
(११) आवश्यक क्रिया का अपरित्याग-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना (गुरुवन्दन), प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान, इन छह आवश्यकों के अनुष्ठान को रुग्णता, व्याधि, चिन्ता, शोकग्रस्तता, विपत्ति, संकट, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि किसी भी परिस्थिति में द्रव्य और भाव से न छोड़ना प्रतिदिन नियमित रूप से अप्रमत्त भाव से आवश्यक धार्मिक क्रियाएँ करना 'आवश्यकापरिहाणि' है।
आवश्यक से संयम की एवं आत्मा की विशुद्धि होती है, दिन और रात्रि
१ देखें चारों प्रकार के विनय का स्वरूप, तत्त्वार्थसूत्र- पं० सुखलालजी, द्वारा संपादित
नया संस्करण पृ० २२० २ देखें "आवश्यकापरिहाणि' का अर्थ, तत्त्वार्थ सूत्र-पं० सुखलालजी, नया संस्करण, पृ० १६२