________________
अरिहन्तदेव स्वरूप : ३६
पदार्थों-परभावों पर से अपनी रुचि और श्रद्धा हटाता है, प्रायः आत्मस्वरूप में रमण करता है; हेय, ज्ञेय और उपादेय को जानकर हेय पदार्थ को त्याज्य, ज्ञय को जानने योग्य और उपादेय को ग्रहण करने योग्य मानता है । दशविध मिथ्यात्व या २५ प्रकार के मिथ्यात्वों से अपनी आत्मरक्षा करता है, (१) शुभ (२) अशुभ और (३) शुद्ध-इन तीन परिणतियों में शुद्ध परिणति का ही प्रायः पुरुषार्थ करता है, शरीर तथा शरीर से सम्बन्धित पदार्थ और आत्मा के भेदविज्ञान में पारंगत होता है। वह सम्यक्त्व के पाँच अतिचारों से सदैव बचकर, शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य में सतत गति-प्रगति करने का प्रयास करता है।
उसका यह दृढ़ विश्वास होता है कि मोक्षमार्ग या रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन प्रधान, प्रथम और अनिवार्य है, उसके बिना सारा ज्ञान मिथ्या ज्ञान है और उसके बिना सारा चारित्र कुचारित्र है। सम्यग्दर्शन के बिना आचरित धार्मिक क्रियाएँ एक के अंक के बिना लगी हुई बिन्दियों के समान व्यर्थ हैं। इसलिए सम्यग्दर्शन को किसी भी हालत में प्रलोभन, लोभ, भय या संकट आदि के आने पर भी नहीं छोड़ना है, न ही उससे स्खलित या शिथिल होना है। सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से आत्मा अर्द्ध पुद्गल परावर्तनकाल में एक न एक दिन निश्चित ही मुक्ति पा सकता है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन की सुरक्षा, विशुद्धि और विशुद्ध आराधनासाधना से आत्मा तीर्थकरगोत्रनामकर्म उपार्जित कर लेता है।
(१०) विनयसम्पन्नता–मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानों अथवा ज्ञान के साधन शास्त्र, ग्रन्थ आदि की अथवा सम्यग्ज्ञानी पुरुषों की विनय-भक्ति करना, ज्ञान के १४ अतिचारों से बचना, ज्ञान और ज्ञानी की आशातनाअविनय-निन्दा-अवर्णवाद निह्नवता, मात्सर्य-अन्तराय आदि न करना; ' इसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शनियों की विनय भक्ति करना, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्त्वी की आशातना, निह्नवता, निन्दा मात्सर्य, अन्तराय, अवर्णवाद आदि न करना, इसी प्रकार सम्यकचारित्र और चारित्रवान् की अविनयआशातना-अभक्ति न करना, उनको भक्ति-विनय-बहमान करना, चारित्र सम्बन्धी अतिचारों से बचकर चारित्र-विशुद्धि और वद्धि का प्रयत्न करना, चारित्रात्मा के प्रति अश्रद्धा प्रकट न करना, इत्यादि प्रकार से चारित्रविनय करना तथा आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, नवदीक्षित, ग्लान-रुग्ण, साधु
१ 'ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः'
–तस्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० २३