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________________ ३८ : जैन तत्त्वकलिका अनशनादि छह बाह्य तप और प्रायश्चित्तादि छह आभ्यन्तर तप, यौ बारह प्रकार के तपश्चरण में अत्यन्त उत्साह, उमंग और हार्दिक उल्लास के साथ अहर्निश पुरुषार्थ करने वाले मुनिगण तपस्वी कहलाते हैं। जैसे साबुन आदि क्षारीय पदार्थों से वस्त्र में प्रविष्ट मैल के परमाण पथक किये जाते हैं तथा अग्नि आदि पदार्थों से सोने में प्रविष्ट मैल दूर करके उसे शुद्ध किया जाता है, वैसे ही आत्मा में प्रविष्ट कर्मों के परमाणुओं को जो तपस्वी मुनि तपः कर्म द्वारा आत्मा से पथक करते हैं, तथैव आत्मारूपी स्वर्ण में प्रविष्ट कर्ममल तपस्यारूपी अग्नि से दूर करके आत्मा को शुद्ध करते हैं, उन तपस्वी मुनियों की भक्ति, सेवा और हार्दिक श्रद्धापूर्वक गणोत्कीतन करने से जीव तीर्थंकरगोत्रनामकर्म का उपार्जन कर लेता है । (८) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-बार-बार तत्त्वविषयक ज्ञान में उपयोग लगाने एवं जागृत रहने से जीव उक्त कर्म का उपार्जन कर लेता है। जो जीव स्त्री-भक्त-राज-देश-विकथादि या व्यर्थ की गप्पं अथवा सांसारिक प्रपंचों को छोड़कर अहर्निश सदैव अध्यात्मज्ञान या शास्त्रज्ञान में ही अपना उपयोग लगाते हैं, उनके अज्ञान का क्षय होने के साथ-साथ क्लेशों का भी क्षय हो जाता है। जैसे-वायु के शान्त होने पर जल में बुलबुलों के उठने की सम्भावना नहीं रहती, वैसे ही क्लेश के क्षय होने से चित्त-समाधि में विक्षप होने की सम्भावना नहीं रहती; चित्त-समाधि स्थिर हो जाती है। जब ज्ञानपिपासु व्यक्ति मतिज्ञान आदि में पुनः-पुनः उपयोग लगाएगा तो वह पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जान जाएगा, जिसका परिणाम होगा-आत्मा की ज्ञानसमाधि में निमग्नता। इसी ज्ञानसमाधि या चित्तसमाधि के फलस्वरूप जीव तीर्थंकरगोत्र नाम-कर्म का उपार्जन कर सकता है। (8) दर्शनविशुद्धि-विशुद्ध निर्मल निरतिचार रूप से सम्यग्दर्शन का ग्रहण, धारण और पालन करना, मिथ्यात्व-सम्बन्धी क्रियाओं, मिथ्या सिद्धान्तों, मिथ्यातत्त्वों आदि से दूर रहना, सुदेव, सुगरु और सद्धर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखना, अपने सम्यक्त्व में चल (चंचलता), मल (मलिनता) और अगाढ़ (अदढ़ता) दोष उत्पन्न न होने देना; अर्हत्कथित तत्त्वों और सिद्धान्तों पर निर्मल और दृढ़ रुचि-श्रद्धा रखना, तथा सुदेव, सुगुरु और सद्धर्म का सच्चा स्वरूप समझकर उस पर पुनः-पुनः मनन-चिन्तन करके अपने सम्यग्दर्शन को और अधिक सुदृढ़ और निर्मल करना; दर्शनविशुद्धि है। . . दर्शनविशुद्धि-परायण साधक निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा का शुद्ध स्वरूप जानकर आत्मतत्त्व पर पूर्ण विश्वास करता है, आत्म बाह्य
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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