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६ / स्वकथ्य
यदि इस स्थान पर यह शंका उत्पन्न की जाए कि, आस्तिक किसे कहते हैं। तब इस शंका के उत्तर में कहा जाता है कि, जो पदार्थों के अस्तित्वभाव को मानता है तथा यों कहिये कि, जो पदार्थ अपने द्रव्य, गुण और पर्याय में अस्तित्व रखते हैं, उनको उसी प्रकार माना जाए, उनको उसीप्रकार से मानने वाला ही आस्तिक कहलाता है।
व्याकरण शास्त्र में आस्तिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से कथन की गई है, जैसे कि-दैष्टिकास्तिकनास्तिका: (शाकटायन व्याकरण अ० ३ पा० २ सू० ६१) दैष्टिकादयस्तदस्येति षष्ठयर्थे जन्ता निपात्यन्ते । दिष्टा प्रमाणानुपातिनो मतिरस्य दिष्टं देवं प्रमाणमिव मतिरस्येति दैष्टिकः । अस्ति परलोकः पुण्यं पापमिति च मतिरस्येत्यास्तिकः । एवं नास्तीति नास्तिकः ।
___ इस सूत्र में इस बात का स्पष्टीकरण किया गया है कि, जो परलोक और पुण्य-पाप को म नता है उसी का नाम आस्तिक है। अतएव आस्तिक मत में कई प्रकार के दर्शन प्रकट हो रहे हैं । जिज्ञासुओं को उनके देखने से कई प्रकार की शंकाएँ उत्पन्न हो रही हैं वा उनके पठन से परस्पर मतभेद दिखाई दे रहा है, सो उन शंकाओं को मिटाने के लिए वा मतभेद का विरोध करने के लिए प्रत्येक जन को जैनदर्शन का स्वाध्याय करना चाहिए। क्योंकि, यह दर्शन परम आस्तिक और पदार्थों के स्वरूप का स्याद्वाद की शैली से वर्णन करता है। क्योंकि, यदि सापेक्षिक भाव से पदार्थों का स्वरूप वर्णन किया जाए तब किसी भी विरोध के रहने को स्थान उपलब्ध नहीं रहता । अतएव निष्कर्ष यह निकला कि प्रत्येक जन को जैनदर्शन का स्वाध्याय करना चाहिये ।
अब इस स्थान पर यह शंका उत्पन्न होती है कि, जैन दर्शन के स्वाध्याय के लिये कौन-कौन से जैन ग्रन्थ पठन करने चाहिए? इस शंका के समाधान में कहा जाता है कि, जैनागमग्रन्थ या जैनप्रकरण ग्रन्थ अनेक विद्यमान हैं, परन्तु वे ग्रन्थ प्रायः प्राकृत भाषा में वा संस्कृत भाषा में हैं तथा बहुत से ग्रन्थ जैनतत्व को प्रकाशित करने के हेतु से हिन्दी में भी प्रकाशित हो चुके हैं वा हो रहे हैं, उन ग्रन्थों में उनके कर्ताओं ने अपने-अपने विचारानुकूल प्रकरणों की रचना की है । अतएव जिज्ञासुओं को चाहिए कि वे उक्त ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करें।
___ अब इस स्थान पर यह भी शंका उत्पन्न हो सकती है कि, जब ग्रन्थसंग्रह सर्व प्रकार से विद्यमान हैं तो फिर इस ग्रन्थ के लिखने की क्या आवश्यकता थी? इस शंका के उत्तर में कहा जा सकता है कि, अनेक ग्रन्थों के होने पर भी इस ग्रन्थ के लिखे जाने का मुख्योद्देश्य यह है कि, मेरे अन्तःकरण में चिरकाल से यह विचार विद्यमान था कि, एक ग्रन्थ इस प्रकार से लिखा जाय जो परस्पर साम्प्रदायिक विरोध से सर्वथा विमुक्त हो और उसमें केवल जैन तत्वों का ही जनता को दिग्दर्शन कराया जाय, जिससे जैनेतर लोगों को भी जैन तत्वों का भली भाँति बोध हो जाए।