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________________ ७४ अमर दीप अर्थात् —जो दुर्जय संग्राम में लाखों सुभटों पर विजय प्राप्त करता है, उससे अच्छा है कि वह एकमात्र आत्मा पर विजय प्राप्त करे । यही उसके लिए परम जय है । हे साधक ! तू आत्मा के साथ युद्ध कर । तुझे बाह्य, ( हिंसक ) युद्ध से क्या प्रयोजन है ? अपनी आत्मा अपने से जीतकर ही व्यक्ति सुख पाता है । सचमुच बाह्य युद्ध में तो हिंसा, वैर-विरोध, ईर्ष्या, द्व ेष, क्रोध, अभिमान आदि के पनपने और इनके फलस्वरूप घोर कर्मबन्ध होने का खतरा है । मगर इस आध्यात्मिक युद्ध में कहीं भी हिंसा, द्व ेष, वैर-परम्परा, क्रोध, लोभ, छल आदि के पनपने और कर्मबन्ध होने की सम्भावना नहीं है । इस युद्ध से जीवन में शान्ति, क्षमा, समता, मैत्री, नम्रता, दया आदि, जो आत्मा के निजी गुण हैं, उन्हीं की वृद्धि होती है । इस आध्यात्मिक युद्ध की प्रेरणा चतुर्थ अध्ययन में अंगिरस ऋषि भी करते हैं अक्खोववंजणमाताया, सीलवं सुसमाहिते । अप्पणा चेव अप्पाणं, चोदितो वहते रहं ॥ २३ ॥ सीलक्ख रहमारूढो, णाण- दंसण- सारही । अप्पणा चेवमप्पाणं, जदित्ता सुभमेहती ॥२४॥ अष्ट प्रवचन - माता - (पाँच समिति, तीन गुप्ति) रूप ( तेल लगे हुए) अक्ष (धुरा) से युक्त शीलवान् सुसमाहित आत्मा का रथ (जीवन-रंथ) आत्मा के द्वारा (अपनी गति से ) स्वतः प्रेरित होकर आगे बढ़ता है । ब्रह्मचर्य ( शील) की सुदृढ़ धुरा वाला रथ और ज्ञान दर्शन जैसे कुशल सारथि को पाकर शुभ (शुद्ध) आत्मपर्याय अशुभ स्थित आत्मपर्याय से युद्ध करके तथा उस पर विजय प्राप्त करके शुद्ध रूप में स्थित होता है । जीवन : लड़ने के लिए है मानव जीवन को एक संग्राम बताते हुए कवि ने प्रेरणा दी है"जीवन है संग्राम, बंदे ! जीवन है संग्राम | जन्म लिया तो जी ले बंदे ! डरने का क्या काम || जीवन है० ॥ टेर ॥ ता सो मरता बंदे ! जो लड़ता कुछ करता । जो रोना था, तो क्यों आया, जीवन के मैदान || जीवन है० ॥२॥ ले हिम्मत से काम, बंदे ! होगा काम तमाम । सेज नहीं फूलों की दुनिया, है कांटों की खान || जीवन हैं० ||३||
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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