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________________ जीवन : एक संग्राम ७५ सर्दी गर्मी वर्षा सूखा, रैन दिनों का तांता । फेंक खिलाड़ी फिर से पासा, तू भी चल मैदान || जीवन है ० || ४ | कवि ने जीवन-संग्राम के विषय में कितनी मार्मिक प्रेरणा दी है । बन्धुओ ! अब आपको जीवन का उद्देश्य बदलना पड़ेगा । अधिकांश लोग कहते हैं - जीवन आनन्द के लिए । परन्तु मैं कहता हूँ कि 'मानव-जीवन एक संग्राम है, वह लड़ने के लिए है ।' आनन्द लेना मनुष्य जीवन नहीं, पशु जीवन है । क्योंकि पशु जीवन में कोई बन्धन, मर्यादा, नियम, व्रत आदि नहीं, कोई विवेक नहीं होता । किन्तु मनुष्य के पास विवेक है, वह हमेशा अपने विवेक- दीपक को प्रज्वलित रखकर जीवन की घोर अंधकारपूर्ण परिस्थितियों में भी अपना मार्ग देखता हुआ चलता है और दुष्ट वृत्तियों से संघर्ष करता रहता है । आप अपना अन्तर्निरीक्षण करके देखिये कि आपको बाह्य युद्ध या संघर्ष से शान्ति रहती है, या आन्तरिक शत्रुओं के साथ युद्ध करके उन पर विजय पाने से शान्ति मिलती है, जो आपको बराबर गुलाम बनाते हैं । आन्तरिक शत्रुओं के साथ मैत्री करके, जन्म-जन्मों तक परिभ्रमण करके नाना दुःख उठाये, उसकी अपेक्षा इस जीवन में उनके साथ जूझकर उनका दमन करके विजय पाने में ही सच्चा सुख है । यों तो यह संसार और मानव-जीवन संघर्षमय है । छोटे-से-छोटा बच्चा भी जब भूखा और प्यासा होता है, या अरक्षित होता है, तब अपनी भूख-प्यास मिटाकर सुरक्षा पाने के लिए रोने, चिल्लाने, हाथ-पैर पटकने का संघर्ष करता है । मानव का स्वभाव ही संघर्षमय है । बिना संघर्ष के जीवन-पथ पर एक कदम भी आगे बढ़ना संभव नहीं है । गति का अभाव या स्थिति-स्थापकता मृत्यु है । जो अपने जीवन में विशेष उपलब्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें तो और भी अधिक संघर्ष करना पड़ता है । कोई व्यक्ति यह चाहे कि मुझे संघर्ष न करना पड़े और बैठे-बैठे ही बिना किसी पुरुषार्थ के ही सफलता मिल जाए, यह असम्भव है । परीक्षा देने वाले विद्यार्थी को भी अपनी आदत, आलस्य, एवं प्रमादी स्वभाव से संघर्ष करके सही दिशा में पुरुषार्थ करना पड़ता है, तब कहीं जाकर उसे उत्तीर्णांक मिलते हैं । इस संसार एवं मानव जीवन की रचना ही ऐसी है कि संघर्षहीन या संघर्ष से बचकर भागने वाले, प्रमादी, आलसी या जीवन के प्रति लापरवाह व्यक्ति को पराजय, असफलता, पतन या विनाश का मुँह देखना पड़ता है ।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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