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अहंकार - विजय के सूत्र ७१ बाहुबली विजयी हुए । जब मुष्टियुद्ध का प्रसंग आया तो बाहुबली ने सोचा- मेरी भुजाओं में अत्यधिक शक्ति है । मेरी एक मुष्टि के प्रहार से बड़े भाई - भरत जमीन में धंस जाएँगे । मैं इस प्रकार से अपनी मुष्टि शक्ति का दुरुपयोग करने के बदले, इसी मुष्टि से अपने मस्तक का पंचमुष्टि लोच क्यों न कर लूं और क्यों नहीं इस अपार शक्ति को संयम साधना में लगा लूं । पृथ्वी का भौतिक राज्य पाने की अपेक्षा मोक्ष का शाश्वत राज्य क्यों न प्राप्त करू ?
बस, सारा ही पासा पलट गया । बाहुबलि ने अपने बड़े भैया भरत चक्रवर्ती को अपना सर्वस्व राज्य आदि सौंपकर मुनिदीक्षा स्वीकार की । चल दिये साधना भूमि की ओर ।
पंच महाव्रत स्वीकार कर लिये और गोम्मट गिरि पर एकाग्रचित्त होकर कायोत्सर्ग में प्रस्तर की भाँति लीन हो गए । न शरीर की परवाह की और न ही भूख-प्यास की चिन्ता की । कहते हैं पक्षियों ने बाहुबली मुनि के शरीर पर यत्र-तत्र घोंसले बना लिये । बेलें उनके देह पर छा गईं । उनकी इस कायोत्सर्ग - साधना को बारह महीने हो गए। शरीर कृश हो गया । परन्तु अभी तक उन्हें केवलज्ञान (सर्वज्ञत्व ) प्राप्त नहीं हुआ ।
सर्वज्ञता प्राप्त न होने का कारण था - अभिमान । बात यह थी कि कि उनके मन में अपनी साधना का अभिमान था । इसलिए वे भगवान् ऋषभ के पास जाकर संघ में प्रविष्ट नहीं हुए । सोचा - ' वहाँ जाऊँगा तो मेरे से पूर्वदीक्षित, ६८ लघु भाइयों को वन्दना करनी पड़ेगी । मैं अपनी व्यक्तिगत साधना में ही ठीक हैं ।'
भगवान् ऋषभदेव ने बाहुबली मुनि के मन में प्रविष्ट अहंकार की स्थिति जानी । सोचा - साधना बहुत ऊँची है, परन्तु अहंकार कषाय क्षय न होने के कारण केवलज्ञान नहीं हो रहा है । इस अहंकार को दूर करने के लिए भगवान् ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुन्दरी साध्वी को प्रतिबोध देने हेतु भेजा। दोनों भगिनियों ने मृदुस्वर से प्रबुद्ध करते हुए कहावीरा म्हारा ! गजथकी उतरो,
गज चढियाँ केवल न होसी रे ॥ वीरा० ॥
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अर्थात् - आप जिस अहंकार के गज पर सवार हैं, उससे नीचे उतरिये । वहाँ चढ़े रहने से केवलज्ञान नहीं होगा ।
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दोनों साध्वी बनों का स्वर सुनकर बाहुबली मुनि चौंके। उन्हें अपनी भूल का भान हुआ । उन्होंने मन ही मन अपने लघु- बान्धव-मुनियों