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अमर दीप
के मूल क्रोध, मान आदि कषायों से उपरत होकर समस्त पर्यायों को जानने लगता है।
__ इसका तात्पर्य यह है कि जब साधक कषाय और मोह को क्षय कर लेता है, तब अन्तर्मुहुर्त में शेष तीनों घाती कर्मों को नष्ट करके सर्वज्ञ बन जाता है। सर्वज्ञ हो जाने पर वह समस्त द्रव्यों की अनन्त पर्यायों को युगपत् जानते हैं । मति-श्रुतज्ञान का धनी छद्मस्थ समस्त द्रव्यों को जान सकता है, किन्तु वह एक द्रव्य की भी समस्त पर्यायों को नहीं जान सकता । तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता वाचक उमास्वाति भी यही कहते हैं-----
‘मति-श्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । १/२७ 'सर्व-द्रव्य-पर्यायेषु केवलस्य ।' १/३०
अर्थात्-'मति और श्रुतज्ञान का विषय-प्रबन्ध सर्वद्रव्यों में है, किन्तु समस्त पर्यायों में नहीं है, जबकि केवलज्ञान का विषय-निर्वन्ध समस्त दव्यों और पर्यायों में युगपत् है।"
___ यह है, मान रूप गज से नीचे उतर कर आत्मा को विनयधर्म में स्थापित करने का फल ! क्रोध-मान से विहीन आत्मा सर्वप्रथम क्रोध के स्थान पर शान्ति और मान के स्थान पर मृदुता को प्राप्त करता है, फिर वह विनय-धर्माचरण से कषाय और मोह को क्षय करके सर्वद्रव्य-पर्यायों को जानने लगता है।
प्राग ऐतिहासिक युग का भगवान् ऋषभदेव के धर्म शासनकाल का एक ज्वलन्त उदाहरण लीजिए-प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने भागवती दोक्षा लेकर अपने चतुर्विध संघ की स्थापना कर दी थी। उनके पास उनके ६८ पुत्र संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो चुके थे और संयम की साधना कर रहे थे। इसके पश्चात् भरत चक्रवर्ती ने अपनी राज्य सत्ता के मद में आकर अपने छोटे भाई बाहुबली को नमाना चाहा । उनके पास अपना संदेश भेजा कि तुम यथाशीघ्र मेरी अधीनता स्वीकार कर लो। मगर बाहुबली इसे अपने स्वाभिमान में बाधक समझ कर अधीनता स्वीकार नहीं की। दोनों युद्ध के लिए तत्पर हो गए। दोनों की सेनाएँ आमने-सामने रणभूमि में आ गयीं। आदेश मिलने की देर थी। तभी बाहुबली के मन में एक विचार स्फुरित हुआ कि हम सेनाओं को लड़ाकर व्यर्थ ही हिंसा और नरसंहार क्यों करें? लड़ाई तो हम दोनों की है । हम दोनों ही द्वन्द्व युद्ध करके क्यों नहीं हार-जीत का फैसला कर लें। भरत को भी यह बात जच गई । प्रस्ताव रखा गया दृष्टियुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि का । सभी युद्धों में