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अहंकार-विजय के सूत्र
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बहुत-से साधक अत्यन्त फूंक-फूंककर चलते हैं । वे क्रियाकाण्ड तो बहुत ही सावधानी से करते हैं। परन्तु उन्हें उक्त क्रियाएँ करने का अत्यधिक अहंकार होता है। वे अपने या अपने सम्प्रदाय के साधकों के सिवाय सबको असाधु या कुसाधु समझते हैं। अपने आपको बहुत ही उच्च क्रियापात्र समझते हैं । क्रिया-काण्डों का आडम्बर और प्रदर्शन इतना है कि वे अपने अभिमान का पोषण करने के लिए अपने व्याख्यान में, दर्शनार्थियों के समक्ष केवल अपना या अपनों का ही बखान करते हैं, दूसरे साधकों में चाहे जितने गुण हों, चाहे जितनी अन्तःशुद्धि हो, वे उनका नाम लेना ही नहीं चाहते । कोई उनके सामने दूसरे सम्प्रदाय वालों की प्रशंसा करे या महत्ता की गुणगाथा गाए तो वे सहन नहीं करेंगे, एकदम आगबबूला होकर उस व्यक्ति को बोलने से टोक देंगे। अपनी ही ठकुरसुहाती करने वालों को वे पसंद करेंगे, उन्हीं से बात करना चाहेंगे। अगर कोई उनको किसी भी गुणी व्यक्ति से अमुक विद्या या अमुक ज्ञान प्राप्त कर लेने का सुझाव देगा तो चट् से उत्तर देंगे कि हमारे पास किस ज्ञान की कमी है, जो हम उस व्यक्ति से, उस आचारभ्रष्ट से या उच्चकोटि का क्रियाकाण्ड न करने वाले से सीखने जाएँ ?
ऐसे साधक मान-शैल पर चढ़े रहकर अन्य को अपने से हीन समझते हैं।
अहंकार मिटाने का अनुभूत उपाय अतः साधक जीवन के विकास में सबसे पहला रोड़ा है-अहंकार । यही उसे आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर आगे बढ़ने तथा अपनी आत्मा को स्वभाव में स्थिर रखने से रोकता है । अतएव पंचम अध्ययन में अर्हत्-ऋषि पुष्पशालपुत्र द्वारा अपने आत्मविकास के अवरोधक मान को दूर करने से आत्मभावों में होने वाली स्थिरता के अनुभवों का दिग्दर्शन करते हुए कहा गया है
माणा पच्चोरित्ताणं, विणए अप्पाणुवदंसए। पुप्फसाल-पुत्तेण अरहता इसिणा बूइयं ॥१॥ पुढवी आगम्म सिरसा, थले किच्चाण अंजलि । पाण-भोजण से किच्चा, सव्वं च सयणासणं ॥२॥
अर्थात्-मान से नीचे उतरे हुए तथा विनय में अपनी आत्मा को स्थिर रखने वाले पुष्पशालपुत्र नामक अर्हतर्षि ने (यह अध्ययन) कहा है।
-उन्होंने मस्तक से पृथ्वी को छूकर भूमि पर अंजलि करके (कषायों