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________________ ६६ अमर दीप पर विजय प्राप्त करके अन्तिम समय में) भोजन, पानी और समस्त शयनासन का त्याग कर दिया था। प्रस्तुत दो गाथाओं में अर्हतर्षि पुष्पशालपुत्र का संक्षिप्त परिचय देते हुए अभिमान को दूर करके विनय में अपनी आत्मा को स्थिर करने की प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया है। __ अर्हतर्षि पुष्पशालपुत्र ने अपने जीवन में यह अनुभव करके देख लिया कि अभिमान साधक को कितना नीचे गिरा देता है ?, किस प्रकार से उसकी साधना को चौपट कर देता है ?, साधक के आत्म-विकास, आत्मशोधन एवं आत्म-निरीक्षण में अहंकार किस प्रकार बाधक बनता है ?, यही कारण है कि उन्होंने जीवन की अन्तिम घड़ियों में चतुर्विध आहार और शयनासन का त्याग करने के बाद भक्तों से मिलने वाली वाहवाही, प्रशंसा, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और अहंपोषक प्रक्रियाओं का त्याग कर दिया था एवं अपने-आपको पृथ्वी की तरह नम्रातिनम्र, बनाकर विनय धर्म में स्थिर कर लिया था। एक पहँचे हए अनुभवी साधक का यह बोलता हुआ जीवन-पृष्ठ प्रत्येक साधक को मानरूपी हाथी से नीचे उतरने की प्रेरणा दे रहा है। ज्ञान आदि का अहंकार कई बार यह देखा जाता है कि साधक थोड़ा-सा ज्ञान प्राप्त कर, मदान्ध हो जाता है, दूसरों को कुछ नहीं समझता। योगी भर्तृहरि ने अपने ज्ञानमद का उल्लेख करते हुए कहा है-- यदा किंचिज्ज्ञोऽहं गज इव मदान्धः समभवम्, तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः । यदा किंचित् किंचिद् बुधजन-सकाशादवगतम्, तदा मूर्योऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ।। -जब मैंने थोड़ा-सा ज्ञान प्राप्त किया तो मैं हाथी की तरह मदान्ध हो गया। (मेरे मन की आँखें बंद हो गईं), 'मैं सर्वज्ञ हैं' इस प्रकार ज्ञानमद से मेरा मन लिप्त हो गया। किन्तु जब मैंने विद्वानों के सान्निध्य में रहकर विनयपूर्वक उनसे (आत्मा के विषय में) कुछ जाना, तब मुझे प्रतीत हुआ कि 'मैं तो अभी मूर्ख हूँ' मेरा जो ज्ञानमद था, वह ज्वर की तरह उतर गया। बन्धुओ ! ज्ञान का अभिमान मनुष्य के अन्तर् की आँखों को बन्द कर देता है, उसी प्रकार तप का, पदवी आदि ऐश्वर्य का, जाति, कुल, बल
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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