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________________ ७ अहंकार - विजय के सूत्र मेरे प्यारे श्रोताओ ! , आपसे एक बात पूछूं - यदि कोई पंडित नहा-धोकर साफ सुथरे कपड़े पहनकर, चारों तरफ गंगाजल छिड़ककर चौका लगाकर खाना बनाने बैठे और खाने में बनाता हो गंदी वस्तुएँ (मांस आदि) तो आप उसकी बाहरी सफाई को क्या कहेंगे ? बाहर पवित्रता और भीतर अपवित्रता । इस नाटक को क्या समझेंगे ? इसी प्रकार आप कपड़े बदलकर मुखपत्ती लगाकर सामायिक करने लगें या हम मुखपत्ती ओघा धारण करके, साधु का बाना पहनकर क्रोध, अहंकार, दंभ, ईर्ष्या, ममता, वासना आदि अपवित्र विचारों को मन में छुपाकर रखें तो आप क्या कहेंगे ? महज एक नाटक ; ढोंग ! क्योंकि जब तक भीतर में पवित्रता नहीं आती बाहरी पवित्रता का कोई महत्व नहीं । इसलिए साधक - जीवन में अन्तर की पवित्रता पर जोर दिया गया हैं । बाहर से आप कितने ही क्रियाकाण्ड कर लें, प्रतिक्रमण, पौषध, सामायिक या व्रत - प्रत्याख्यान कितने ही कर लें, किन्तु अन्तर् में पवित्रता नहीं है, वहाँ क्रोध और अहंकार अपना अड्डा जमाए बैठे हैं तो बाह्य क्रियाओं का कोई मूल्य नहीं है । अहंकार के नये पैंतरे जैसे एक अंक के अभाव में हजारों शून्यों का कोई मूल्य नहीं है, उसी प्रकार आन्तरिक पवित्रता के बिना बाह्य आचार का कोई भी मूल्य नहीं है । जो क्रियाकाण्ड केवल काया से किया जाता है, जिसके साथ मन तार जुड़े हुए नहीं हैं, उससे आत्मा पवित्र नहीं बनती । आत्मा को निर्मल एवं पवित्र बनाने के लिए अन्तर् से क्रोध और मान को निकालना अनिवार्य है, उसके पश्चात् ही क्रियाकाण्ड जीवन को चमकाता है ।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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