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________________ प्रगति का मूलमंत्र : समभाव ६३ गधे पर चढ़ा हुआ है । जरा भी शर्म नहीं आती ।" यह सुनकर बाप-बेटा दोनों गधे पर बैठ गए। इससे अगला गांव आया तो लोग तीखी आलोचना करने लगे – 'देखो, देखो ! ये कितने निर्दय हैं । बेचारा एक अबोल सीधा-सादा प्राणी है, उस पर ये दोनों पट्टे जम गए हैं, मार डालेंगे, बेचारे को ।" यह आलोचना सुनते ही दोनों गधे से उतर पड़े और पुनः दोनों गधे को आगे करके पैदल चलने लगे । तो यह है दुनिया द्वारा की गई आलोचना के समय समत्व भंग होने का परिणाम । इसीलिए महर्षि अंगिरस कहते हैं जो जत्थ विज्जती भावो, जो वा जत्थ ण विज्जती । सो सभावेण सव्वोवि, लोकम्मि तु पवत्तती ॥२०॥ विसं वा अमृतं वा वि, सभावेण उवट्ठितं । चंदसूरा मणी जोती, तमो अग्गी दिवं खिती ॥ २१ ॥ - जो भाव जहाँ उपलब्ध है, या जो भाव जहाँ नहीं है, यह सद्भाव या अभाव, सब कुछ लोक में स्वाभाविक ही है ॥२०॥ - दुनिया में अमृत भी है, विष भी है । चन्द्र और सूर्य, अंधकार और - प्रकाश, मणि और अग्नि, स्वर्ग और पृथ्वी, सब कुछ स्वभाव से ही उपस्थित है ||२१|| बन्धुओ ! विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वभाव में स्थित है । हमारे चाहने या न चाहने से किसी का सद्भाव या अभाव नहीं हो जाता । संसार में अंधेरा भी अनन्त काल से है और प्रकाश भी, अमृत भी अनादिहै, विष भी । साधक को इष्ट-अनिष्ट के पचड़े में नहीं पड़ना है । उसे सीधी राह पर अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाना चाहिए तथा इन कांटों में उलझना नहीं चाहिए, सदा-सर्वदा समभाव में रहना चाहिए । साधक की प्रगति का मूल मंत्र है । 00
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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