________________
प्रगति का मूलमंत्र : समभाव ५६ न होने से) धर्म के लिए सदैव अनुपस्थित (अनुद्यत) रहने वाला व्यक्ति जीवन की सन्ध्यावेला में पश्चाताप करता है।
क्योंकि वह शुद्ध आलोचना आदि नहीं कर पाता। आलोचना आदि के अभाव में वह साधु आराधक नहीं, विराधक होता है।
व्यवहारसूत्र में कहा गया है कि जो कपट सहित आलोचना करता है, उसे दुगुना प्रायश्चित्त आता है। एक तो दोष-सेवन का और दूसरा कपट करने का । माया से मिश्रित आलोचना साधक-जीवन को पतन की राह पर ले जाती है । वह धर्म से कोसों दूर हो जाता है । भगवान् महावीर ने आत्मशुद्धि के साधनरूप धर्म के स्थायित्व का रहस्य बताते हुए कहा
'सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ ।' - (उत्तरा . ३/१२) -- जिसका मन-वचन-काय सरल है, जिसका हृदय ऋजुभूत है, उसी की आत्मशुद्धि होती है। और शुद्ध आत्मा में ही धर्म का स्थायी निवास होता है।
सरलता से युक्त अपने श्रेष्ठ आचार के प्रति सतर्क और धर्म में सुप्रतिष्ठित रहने वाला साधक सदा आनन्दित रहता है, उसे जीवन के सन्ध्याकाल में पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता।
तृतीय कण्टक युगल : निन्दा-प्रशंसा में असमत्व साधना के पथ में आगे बढ़ने वाले साधक को कभी प्रशंसा के फूल मिलते हैं, तो कभी निन्दा के शूल मिलते हैं । कच्चे साधक प्रशंसा मिलने पर राग से और निन्दा होने पर द्वेष से ग्रस्त हो जाते हैं, वे निन्दा और प्रशंसा के समय दीर्घदृष्टि से विचार करके समता की पगडंडी पर स्थिर नहीं रह सकते। इस सम्बन्ध में साधक को मार्गदर्शन देते हुए अंगिरस अर्हतर्षि कहते हैं
नरं कल्लाणकारि पि, पावकारिति बाहिरा। पावकारि पि ते बूया, सीलमंतो त्ति बाहिरा ॥१३॥ चोरं पिता पसंसंति, मुणीवि गरिहिज्जती। ण से एत्तावताऽचोरे, ण से इत्तवताऽमुणी ॥१४॥ णण्णस्स वयणा चोरे, णण्णस्स वयणा मुणी।। अप्पं अप्पा वियाणाति, जे वा उत्तम णाणिणो ॥१५॥ जइ मे परो पसंसाति, असाधु साधुमाणिया । न मे सातामए भासा, अप्पाणं असमाहितं ॥१६॥