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अमर दीप
जति मे परो विगरहाति, साधु संतं निरंगणं । ण मे सक्कोसए भासा, अप्पाणं सुसमाहितं ॥ १७॥ जे उलूका पसंसंति, जं वा निदंति वायसा । निंदा वासा पसंसावा, वायुजालेव्व गच्छति ॥ १८ ॥ जं च बाला पसंसंति, जं वा णिदंति कोविदा ।
fदा वा सा पसंसा वा पप्पाति कुरुए जेगे ॥ १६ ॥ बाहरी दृष्टि वाले कल्याणकारी आत्मा को भी पापकारी बतलाते हैं और अन्तस्तल तक न पहुँचने वाले लोग शीलवान् ( सदाचारी) को भी दुराचारी कह डालते हैं ||१३||
स्थूल दृष्टि जनता कभी चोर की भी प्रशंसा कर देती है और मुनि को भी घृणा मिलती है । किन्तु इतने मात्र से चोर साधु नहीं बन जाता और न ही सन्त असन्त बनता है || १४ ||
किसी के कहने मात्र से कोई चोर नहीं बन जाता और कहने पर से सन्त नहीं बन जाता । मनुष्य अपने आपको या तो स्वयं जानता है, या उत्तमज्ञानी (सर्वज्ञ) उसकी वृत्तियों को जानते हैं ।। १५ ।।
यदि मैं साधु हूँ और दूसरा साधु मानकर मेरी प्रशंसा करता है, किन्तु मेरी आत्मा समाधिस्थ ( सुखसाता में ) न हो तो प्रशंसा की मधुर भाषा मुझे समाधिस्थ नहीं बना सकती || १६ |
यदि मैं निर्ग्रन्थ हूँ और जनता मेरी अवमानना करती है तो निन्दा की वह भाषा मुझमें आक्रोश नहीं पैदा कर सकती, क्योंकि मेरी आत्मा सुसमाधि में स्थित है ॥ १७ ॥
उल्लू जिसकी प्रशंसा करें और कौए जिसकी निन्दा करें, वह निन्दा या प्रशंसा दोनों ही हवा की भाँति उड़ जाती है || १८ ||
अज्ञानी जिसकी प्रशंसा करता है और विद्वान् जिसकी निन्दा करता है । ऐसी निन्दा और प्रशंसा इस छली दुनिया में सर्वत्र उपलब्ध है ॥ १६ ॥
वस्तुतः अपनी अच्छाई और बुराई के सम्बन्ध में या अच्छे और बुरे कर्मों के सम्बन्ध आत्मा स्वयं ही अपना गवाह है । दूसरा व्यक्ति किसी के अच्छे और बुरे कर्मों को जान नहीं सकता । अपनी अच्छाई और बुराई का नाप-तौल व्यक्ति स्वतः जितना कर सकता है, उतना दूसरा नहीं । अतः स्थूल दृष्टि वाली दुनिया के द्वारा की गई निन्दा और प्रशंसा के गज से अपनी अच्छाई और बुराई को साधक न नापे; क्योंकि दूसरे को नापने में दुनिया के गज गलती भी कर सकते हैं ।
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