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________________ दुःख के मूल : समझो और तोड़ो ३७ विपत्ति को एक दिन तूने ही निमन्त्रण दिया था, आज वह आई है तो उससे भागने की और अपनी गलती को दूसरे पर मढ़ने, अर्थात् निमित्त पर आक्रोश करने की कोई आवश्यकता नहीं है । तेरे ही पूर्वकृत अशुभकर्मों के उदय से विपत्ति आई है, उसके लिए दूसरों को दोष मत दे । एक अंग्रेज विचारक ने ठीक ही कहा है। - ‘It is our own past, which has made us, what we are.' 'आज हम जो कुछ हैं, हमारे ही अतीत ने हमें (ऐसा ) बनाया है । ' कर्मवाद कहता है- मानवं ! सुख और दुःख, सम्पत्ति और विपत्ति सब तेरे हाथ में है । शुभाशुभ कर्मों से मुक्त होना भी तेरे हाथ में है । कर्मों के बोज और कर्म - सन्तति आत्मा के जन्म-मरणादि दुःख या बाह्य सुख के मूल हेतु कर्म हैं, यह जान लेने के बाद प्रश्न उठता है कि आत्मा तो अपने आप में कर्मरहित है शुद्ध है, ज्ञानमय है; फिर कर्म उसके कैसे लगें ? कब लगे ? क्यों लगे ? या पहले कर्म था या आत्मा ? इसका समाधान करने के लिए अर्हतर्षि वज्जियपुत्त कहते हैं - या अंकुरणिपत्ती, अंकुरातो पुणो बीयं । बीए संबुज्झज्जमाणमि, अंकुरस्सेव संपदा ॥४॥ बीभूताणि कम्माणि, संसारम्मि अणादिए । मोहमोहितचित्तस्स, ततो कम्माण संतति ॥ ५॥ मोहमूलमनिव्वाणं, संसारे सव्वदेहिणं । मोहमूलाणि दुक्खाणि, मोहमूलं च जम्मणं ॥ ६ ॥ - ( संसार में यह देखा गया है कि) बीज से अंकुर फूटता है, और अंकुरों में से पुनः बीज निकलते हैं । बीजों के संयोग से अंकुरों की सम्पदा बढ़ती है। - इस अनादि संसार में कर्म बीजवत् है । मोह-मोहित चित्त वाले के कर्मों की संतति (परम्परा) उन्हीं बीजों से आगे बढ़ती है । - संसार के समस्त देहधारियों के अनिर्वाण - अशांति या जन्म-मरण के चक्र का मूल मोह है । समस्त दुःखों का मूल भी मोह है, तथा जन्ममरण का मूल भी मोह ही है । वज्जियपुत्त अर्हतर्षि ने कर्म को नन्हें बीजों से उपमित किया है । अल्परूप में आये हुए कर्म भी अपने में अनन्त संसार लिये आते हैं । उत्तरा
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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