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अमर दीप
में जाता है तथा अपने ही कर्मों के द्वारा इस संसार में आता है । इस प्रकार वह आर्त (दुःख से पीड़ित ) आत्मा अपने ही कर्मों द्वारा सींची हुई जन्ममृत्यु की परम्परा में आता है ।
कुछ दर्शन कहते हैं कि "ईश्वर ही सृष्टि का कर्त्ता - हर्त्ता है, इसलिये वही जीवों को दुःखया सुख देता है । उसी की प्रेरणा से जीव विविध योनियों या गतियों में जन्म-मरण करता है, स्वर्ग या नरक में उसी की प्रेरणा से जीव जाता है ।" परन्तु यह कथन युक्तिसंगत एवं यथार्थ नहीं है । अपने सुख-दुःख या उनके कारणभूत शुभाशुभ कर्म के लिए ईश्वर को उत्तरदायी ठहराना कथमपि उचित नहीं है । अर्हतर्षि वज्जियपुत्त ने इस गाथा द्वारा स्पष्ट ध्वनित कर दिया है कि ईश्वर स्वतन्त्र, सिद्ध-बुद्धमुक्त और संसार से सर्वथा निर्लिप्त एवं कृतकृत्य है । उसे इस प्रपंच में पड़ने की क्यों आवश्यकता पड़ी ? इसीलिए भगवद्गीता में इस कथन का ause किया गया है
- ईश्वर न तो लोक का कर्त्ता है, न कर्म का सृजन करता है, न ही कर्मफल का संयोग कराता है । यह लोक तो स्वभाव से ही प्रवृत्त होता
है ।
न कर्तत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल- संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥
वस्तुतः आत्मा ही स्वकृत कर्मों के लिए, तथा कर्मफल के फलस्वरूप विविध योनियों में जन्म-मरण के लिए उत्तरदायी है। अपने शुभाशुभ कर्म ही जन्म और मृत्यु के, रोग, मरण आदि दुःखों के लिए उत्तरदायी हैं । स्वर्ग और नरक का, सुख और दुःख का कर्त्ता और भोक्ता स्वयं ही है । भगवती सूत्र (श. 8 / ३२ ) में यही बात भगवान् ने बताई है कि नैरयिक आदि जीव नरक आदि में स्वयमेव उत्पन्न होते हैं, उन्हें वहाँ दूसरा कोई उत्पन्न नहीं
करता ।
सूर्य स्वयं अपनी किरणों द्वारा बादलों का निर्माण करता है, और स्वयं ही किरणों द्वारा उन्हें द्रवित कर स्वयं उनसे मुक्त होता है । कर्म का सिद्धांत मनुष्य की बहिर्दृष्टि को मोड़कर अन्तर् की ओर लाता है । इसी लिए भगवान् ने कहा है
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अप्पा कत्ता विकत्ता या दुहाण य सुहाण य ।
-आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का कर्ता है, और वही उनका
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भोक्ता है।