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दुःख के मूल : समझो और तोड़ो
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'भगवन् ! दुःख किसका किया हुआ है ?' भगवान ने कहा-'जीवेण (अत्त) कडे, पमाएणं ।'
-स्थानांग० ३/२ जीव ने स्वयं प्रमाद के द्वारा दुःख को उत्पन्न किया है। प्रमादी एवं अज्ञानी मानव अपने आप से किये हुए दुःखों के लिए दूसरों को जिम्मेवार ठहराता है। वह दुःख आ पड़ने पर या तो किसी व्यक्ति को, या भगवान को, काल को अथवा अमुक परिस्थिति को उस दुःख के लिए दोषी या जिम्मेदार ठहराता है, परन्तु यह नहीं सोचता कि मैं अगर दुःख के कारणभूत दुष्कर्म न करता तो मुझे यह दुःख क्यों प्राप्त होता।
अतः अगर दुःख से बचना चाहते हो तो उसके कारण को ढूढ़ो और फिर उसके निवारण के लिए पुरुषार्थ करो।
दुःख का मूल कारण : स्वकृत कर्म प्रश्न होता है कि जब दुःख के लिये मनुष्य स्वयं जिम्मेवार है, तब दुःख का मूल कारण क्या है ? दुःख का मूल कारण जानने से पहले संसार के विशिष्ट दुःख कौन से हैं, जिनसे समस्त संसारी जीव पीड़ित हैं ? इसके विषय में भगवान् का कथन सुनिए --
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ किस्संति जंतवा ॥ -जन्म दुःखरूप है, जरा (वृद्धावस्था) दुःखरूप है, रोग और मृत्यु दुःखरूप हैं। इस प्रकार सारा ही संसार दुःखमय है, जहाँ सांसारिक प्राणी क्लेश पाते हैं। - वस्तुतः सारा संसार इन और इनके समकक्ष सैकड़ों दुःखों से त्रस्त है। सबसे बड़ा दुःख तो प्राणियों को जन्म-मरण का है। प्राणी संसार में जहाँ भी, जिस किसी योनि या गति में जन्म लेता है, वहाँ अनेकों दुःख लगे हुए हैं । अतः भगवान् महावीर ने कर्म-शुभाशुभ कर्म को ही दु:ख का मूल कारण बताते हुए कहा है
कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं । -जन्म-मरणरूप दुःखों का मूल कर्म है। इसी तथ्य को अर्हतर्षि वज्जियपुत्त उजागर करते हुए कहते हैं
गच्छंति कम्मेहिं सेऽणुबद्ध, पुणरवि आयाति से सयंकडेणं ।
जम्ममरणाइं अट्टो पुणरवि आयाइ से सकम्मसित्ते ॥३॥ -प्राणी अपने किये हुए कर्मों से अनुबद्ध (बंधा हुआ) होकर परलोक