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अमर दीप
ध्ययन सूत्र में भगवान् ने कर्म को जन्म-मरणरूप संसार का बीज कहा है । फिर उन्होंने राग-द्व ेष को कर्म का बीज बताते हुए कहारागो य दोसो बिय कम्मबीयं ।
'राग और द्वेष ये दोनों कर्मबीज हैं ।'
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आत्मा के राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि विकारमय स्पन्दन भावकर्म हैं और कार्मण वर्गणा के पुद्गल द्रव्यकर्म हैं । भावकर्म से प्रेरित होकर आत्मा द्रव्यकर्म को अपनी ओर आकर्षित करता है । वे ही कर्म जब विपाक रूप में उदय में आते हैं, तो कोई न कोई निमित्त बन जाता है । अज्ञानी आत्मा अपने उपादान को न देखकर निमित्त को ही सब कुछ मानकर उसी पर अपना रोष प्रकट करता है । इसीलिए वह उदयगत कर्मों को क्षय करने के साथ-साथ राग-द्व ेष के परिणामों से अनन्त अनन्त कर्म उसी क्षण बाँध लेता है । यही है बीज से अंकुर और अंकुर से पुनः बीज के रूप में कर्मसंतति का रहस्य | आत्मा ने कर्म कब से बांधे ? कर्म पहले था या आत्मा ? इस प्रश्न का प्रत्यक्ष समाधान तो नहीं है, किन्तु प्रवाहरूप से इसी कार्य-कारण- परम्परा से बँधकर आत्मा और कर्म दोनों विरोधी स्वभाव के होने पर भी अनादिकालीन सहयात्री है |
कर्मों के कारण ही जन्म, जरा, मृत्यु, रोग आदि दुःख उत्पन्न होते हैं । जहाँ तक मोह है, वहाँ तक ये दुःख आते रहेंगे । उत्तराध्ययन सूत्र (३२/८) में कहा है
दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो
- जिसके मोह ( दर्शन मोह - चारित्रमोह - कषाय- नोकषाय) नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो जाता है ।
शुद्ध आत्मा के कर्म कैसे चिपक जाते हैं ? इसके लिए दृष्टांत द्वारा आपको समझा दूं
मोहन नामक एक व्यक्ति किसी उद्यान में गया । वहाँ उसने महकते गुलाब के फूल देखे । (यहाँ तक तो ठीक है । आत्मा ज्ञान - चेतनामय है । कोई भी पदार्थ उसके सामने आये और वह देखे, यह पाप नहीं है । क्योंकि आत्मा का स्वभाव ज्ञाता और द्रष्टारूप है ।) किंतु देखने के साथ ही मोहन बोल उठा - ' कितने सुन्दर एवं सुगन्धित फूल हैं ।' (यहाँ इन वाक्यों के साथ ही राग चेतना आ गई जो कर्मबन्ध का कारण बन गई ।) फिर उसका मन मचल उठा उन फूलों को लेने के लिए । ( तब यह रागचेतना वासना में परिणत हो गई ।) किंतु सोचा कि 'माली आ जाये तो पैसे देकर ले लें ।' (यहाँ तक वासना नीति की सीमा में है ।) किंतु सोचा