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अमर दीप
"कौन ?" वह बोला-'मैं हूँ एक दुखिया। मुझे सोलन ने आपका एक कोट लेने के लिए भेजा है।" सेठ बोला-"किसलिए? मेरा कोट क्यों चाहते हो?" वह बोला-"सोलन ने कहा है कि तुम किसी सुखी मनुष्य का कोट ले आओ तो मैं तुम्हें सुख का मंत्र दे दूंगा।"
सेठ-"भाई ! कोट तो भले ही तुम एक के बदले दो ले जाओ, परन्तु मैं सुखी नहीं हैं।"
आगन्तुक -- "अजी ! क्यों मुझे बहकाते हैं ? आपके पास इतना बड़ा बंगला है, चार-चार कारें हैं । सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, कई मुनीम-गुमाश्ते हैं, फिर भी आप कहते हैं, कि मैं सखी नहीं हूँ। मैं मान नहीं सकता।"
सेठ-"अच्छा ! तुम तीन दिन मेरे यहाँ रहकर देख लो कि मैं दुःखी हूँ या सुखी।"
आगन्तुक ने रहना मंजूर कर लिया। सेठ ने अपने सेवक से कह कर अपने खास दीवानखाने से समीप ही अतिथिगृह में आगन्तुक के रहने तथा खाने-पीने का प्रबन्ध करा दिया। दूसरे दिन सुबह होते ही उक्त सेठ की अपने पुत्र के साथ झड़प हो रही थी। लड़का कह रहा था"मेरे भी अपने अरमान हैं । मैं भी इस दुनिया में आया हूँ तो दुनिया का आनन्द लट लू ! आप मुझे किसी भी बात से रोक नहीं सकते।"
सेठ बोल रहा था-"परन्तु तू मेरी भी कुछ माना कर.। मेरे नाम पर कालिख तो मत पुतवा। अगर इस पर भी तू नहीं मानता तो मेरे घर से निकल जा।"
__ लड़का कहने लगा--"मैं आपका गुलाम नहीं हैं। मैं हर जगह जाने के लिए आजाद हूँ। आप जैसे कंजूस, अनुदार, जिद्दी और क्रोधी पिता के पास रहना मुझे कतई पसन्द नहीं है।"
पिता बोला-"नालायक ! कमीने ! निकल जा, अभी का अभी।"
इस प्रकार पिता-पुत्र का कलह सुनकर आगन्तुक ने सोचा मैं तो समझता था यह सेठ बड़ा सुखी है, परन्तु यह तो मुझसे भी दुःखी है। मेरा लड़का कम से कम मेरी आज्ञा का तो पालन करता है। उसने सेठ से कहा-"नमस्ते सेठजी ! यह मैं चला। सचमुच आप सुखी नहीं हैं, मैंने देख लिया।"
सेठजी से विदा लेकर वह एक बड़े जमींदार के यहां पहुंचा और उससे अपना कोट देने को कहा । कारण वही पहले वाला बताया। जमींदार ने भी कहा-"तुम मुझे सुखी मानते हो, पर मैं सुखी नहीं हूँ।"